एक बार दक्षिण के संत माधवाचार्य अपने शिष्यों के साथ उत्तर भारत की यात्रा पर निकले। कई दिनों के चलने के बाद रास्ते में उन्हें विशाल उफनती गंगा नदी मिली। शिष्य यह देख घबरा गए। सोचने लगे अब आगे की यात्रा कैसे की जाएं।
संत माधवाचार्य उन लोगों की मनोदशा समझ गए और बोले- “हम जब भवसागर पार करने निकले हैं। तब इस नदी से डरने से काम कैसे चलेगा?” इतना कहते हुए संत माधवाचार्य उफनती गंगा नदी में घुस गए। यह देख शिष्यों ने एक-दूसरे का मुह देखा और बिना कुछ कहे संत के पीछे चल दिये। कुछ ही क्षणों में नदी की उफनती धारा धीरे-धीरे शांत हो गई और नदी का पानी भी कमर से नीचे हो गया। यह देख शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ। अब वे आसानी से नदी के उस पार पहुंच गए।
नदी पार करते ही वे सब मुगल बादशाह जलालुद्दीन खिलजी के राज्य क्षेत्र में आ गए थे। जिस बात का उन्हें ज़रा भी अहसास न था। क्षेत्र के पहरेदार सैनिकों ने उन्हें दुश्मन जासूस समझ कर घेर लिया और उनपर तलवार तान दी। यह देख सभी शिष्य भयभीत हो गए। परंतु माधवाचार्य निडर होकर शांत भाव से खड़े रहे। एक सैनिक ने तलवार उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा – कौन हो तुम, सच बताओ नहीं तो यहीं मारे जाओगे।
माधवाचार्य निडरता के साथ कहने लगे- मेरे भाई हम लोग सन्यासी हैं बहुत दूर दक्षिण दिशा से आ रहे हैं। और हम तुम्हारे बादशाह का दर्शन करना चाहते हैं। इतना कहकर वे लोग आगे बढ़ गए। सैनिकों को उनका जवाब सही लगा। और कुछ सैनिक उनके पीछे चल दिये यह देखने के लिए की ये सच बोल रहे या नहीं।
बादशाह अपने महल की छत में टहल रहे थे की तभी उनकी नजर इनपर पड़ गई। बादशाह ने देखा कि एक बैरागी अपने शिष्यों के साथ महल की सीमा में प्रवेश कर रहा है। उन्होंने वहां उपस्थित एक सैनिक को उन्हें बुलाने के लिए भेजा। शिष्यों के साथ
माधवाचार्य बादशाह के सामने खड़े हो गए। बादशाह ने उन्हें देख कहा – तुम हमारे राज्य में कैसे आये। किसी ने तुम्हें रोका नहीं। और इतनी बड़ी नदी को तुम पार कैसे कर लिया? क्या तुम्हें नहीं मालूम काफिरों का आना यहां मना हैं।
माधवाचार्य बड़ी स्थिरता से यह सब सुन रहे थे।
बादशाह की बातों को पूरा सुनने के बाद वे मधुर स्वर में बोले – जहाँपनाह हम तो ठहरे बैरागी। आपके राज्य से होकर उत्तर की ओर जाना चाहते हैं। और जो रही नदी पार करने की बात तो हमारा अल्लाह ही उस उफनती नदी से हमें पार करवाया है। यह सुन बादशाह को बड़ा आश्चर्य हुआ। कि एक काफिर अल्लाह को कैसे मानता है? बादशाह ने माधवाचार्य से उनका असली परिचय पूछा।
इस बार माधवाचार्य के एक शिष्य ने बड़ी आदरता के साथ जवाब देते हुए कहा – बादशाह सलामत ये हैं दक्षिण भारत के सबसे प्रतिष्ठित संत, जिसे दुनियां
माधवाचार्य के नाम से जानती है। यह सुन बादशाह ने भी बड़ी उदारता के साथ कहा – हमने आपके बारे में सुन रखा है। आज आपके दर्शन भी हो गए। कृपया हमें कुछ ज्ञान की बातें बताएं।
माधवाचार्य ने शांत स्वर से कहना आरम्भ किया – बादशाह जो जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है। फिर भी लोगों में जीने की होड़ लगी है। जो सम्पति यहां से उधार ली है, यहां चुकाकर ही खाली हाथ जाना होगा।
यह सुनने के बाद बादशाह से रहा न गया। उन्होंने कौतूहलवश पूछ ही लिया। आचार्य जी आप एक हिन्दू होकर अल्लाह को मानते है। मैं यह नहीं समझ सका।
माधवाचार्य ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया – बादशाहों के बादशाह जिसे आप अल्लाह कहते हैं वहीं तो हमारा नारायण है। पूरी दुनियां में असंख्य भाषाएं हैं इस वजह से उसे भिन्न नामों से पुकारा जाता हैं। वह सबकी सुनता है। हम सब उसी की तो संतान हैं उसी की कृपा से हम नदी पार कर सके हैं। आपको यकीन ना हो तो हमारे पीछे लगे आपके सैनिकों से ही पूछ लें।
इतना सुनते ही उनके पीछे लगे सैनिक बादशाह के सामने आ गए और बादशाह को सारी घटना के बारे में बताया।
यह जान बादशाह को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इन्हें कैसे पता चला कि सैनिक इनका पीछा कर रहे हैं।
माधवाचार्य ने आगे कहा – बादशाह भला संतों की किसी से क्या दुश्मनी हो सकती है। हम तो ठहरे बैरागी। आज यहां, फिर न जाने कल कहाँ।
यह सब सुन बादशाह ने उनको सम्मनित करते हुए यथोचित भेंट प्रदान किया।
माधवाचार्य और उनके शिष्य बादशाह से आज्ञा लेकर आगे बढ़ने लगे। तभी बादशाह ने कहा मुनिवर वापस इस मार्ग से जाना होगा तो एक बार पुनः हमसे मुलाकात अवश्य करिएगा।
माधवाचार्य हाँ में सर को हिलाते हुए और आशीर्वाद देते हुए आगे बढ़ गए।
दिया सैनिकों से हमने आपसे भेंट कराने की विनती की और उन्होंने शहर स्वीकृति दे दी संत की मधुर वाणी और शांत स्वभाव का बादशाह पर असर पड़ा वह उन्हें दरबार में ले गया और उनका यथोचित सम्मान किया।
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