बहुत समय पहले की बात है, भारतदेश में एक राजा हुआ करते थे जिनका नाम था- पीपा। ऋषि-मुनियों और ज्ञानी पुरुषों का बड़ा आदर सत्कार किया करते थे। वे एक धार्मिक पुरुष थे, धर्म के कार्यों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया करते थे। एक बार उन्हें सत्संग में जाने की प्रबल इच्छा हुई। जहाँ ज्ञानी धर्मोपदेश दिया करते थे। इस सिलसिले में उन्होंने अपने वरिष्ठ मंत्री से कहा कि उन्हें किसी अच्छे संत का नाम बताए। ताकि वे उस संत से धर्म की बातें सिख सके। वरिष्ठ मंत्री ने उन्हें संत रविदास का नाम सुझाया। सन्त रविदास उस समय के सबसे प्रसिद्ध सन्तों में से एक थे और उनके राज्य के करीब भी थे। लेकिन मंत्री ने यह कहा कि वे जाति के चमार है।
यह सुन राजा सोचने लगे और मंत्री से पूछ बैठे – एक चमार कैसे धर्मोपदेश दे सकता है?
मंत्री – महाराज भले ही उनका जन्म चमार कुल में हुआ हो, लेकिन वे एक ज्ञानी पुरुष है। इसलिए आप उनके सत्संग में ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
यह सब सुन राजा को लगा कि बात तो सही है। ज्ञान प्राप्त करने में क्या दोष? और सोचने लगे कि यदि सत्संग अपने राजमहल में करवाया तो लोग मेरा उपहास करेंगे। हो सकता है मुझे धिक्कारें। इसलिए मैं अकेले ही उनके स्थान पर जाकर ज्ञान प्राप्त करूँगा। मेरा अकेले जाना उचित होगा और वहां से वापस आकर स्नान भी कर लूंगा। यह सही रहेगा। यह सब सोचने और विचारने के बाद राजा दूसरे दिन संत रविदास की कुटिया में जाने के लिए तैयार हो गए।
रास्ता थोड़ा लंबा था इसलिए राजा संध्या के समय संत रविदास की झोपड़ी के पास पहुंच गए और अपना परिचय देते हुए उनसे उपदेश देने की प्रार्थना की। रविदास उस समय जूता सी रहे थे। उन्होंने पास रखे बटुए का पानी राजा की हथेली में देते हुए कहा राजन पहले आप यह चरणामृत ग्रहण करें। यह सुनते ही राजा के मन में छटपटाहट होने लगी। और उनके मन में विचार उठने लगा की यह तो जाति का चमार है। अतः इनसे चरणामृत कैसे लिया जा सकता है। किन्तु, इंकार भी नहीं किया जा सकता। राजा ने चरणामृत तो ले लिया लेकिन संत रविदास की आंख बचाकर अपने कुर्ते की खुली आस्तीन में डाल दिया। भला संत से यह बात कैसे छुपी रह सकती थी। वे राजा के मन की बात समझ गए लेकिन चुप रहे और राजा से बाद में आने के लिए कहा।
अब राजा वहां से वापस महल की ओर निकल गए। वापस आते समय राजा खुश हो रहे थे कि बड़ी चालाकी से एक अस्पृश्य का जल ग्रहण करने से अपनी रक्षा कर ली। महल पहुंचते ही उसने तुरंत कुर्ता निकाला और धोने के लिए अपने धोबी को दे दिया। अब धोबी उस कुर्ते को जैसे ही धोने के लिए उठाया था कि अचानक उसकी 10 वर्ष की लड़की वहां खेलते हुए आ गई और उसने खेल-खेल में वह कुर्ता छीन आस्तीन वाले भाग को चूस डाला। तत्क्षण उस लड़की में अदभुत परिवर्तन हो गया। कुर्ता वापस करते गए उसने उपदेश देना आरम्भ कर दिया। देखते ही देखते यह बात सारे धोबियों में फैल गई। सभी उसके धर्मोपदेश को सुनने के लिए भीड़ लगाने लगे। और कुछ ही दिनों में यह बात पूरे राज्य में फैल गई। यह बात राजा पीपा तक भी पहुंची कि मात्र 10 वर्ष की एक धोबी की लड़की धर्मोपदेश दे रही है। राजा के मन में उत्कंठा हुई और वह धोबी के घर पहुंच गया।
राजा को देख धोबी की लड़की उठ खड़ी हुई। यह देख राजा ने उसे बैठने के लिए कहा। इस पर उस लड़की ने कहा- राजन मैं आपको सम्मान देने के लिए खड़ी नहीं हुई हूँ। मैं तो आपको धन्यवाद देना चाहती हूँ। क्योंकि मुझे जो उपलब्धि हुई है वह आपकी कृपा से ही हुई है। राजा विश्मित होकर उसकी ओर देखने लगा। उसे कुछ समझ में नहीं आया। तब अपने कथन को स्पष्ट करते हुए उस लड़की ने कहा- राजन याद करिए वह दिन, जब आप संत रविदास के झोपड़ी में गए थे। और आपने संत रविदास द्वारा दिए गए चरणामृत को अपने आस्तीन में डाला था। राजन, यदि आपने उस चरणामृत को आस्तीन में न डाला होता और उस आस्तीन को मैंने न चूसा होता तो मुझे यह ज्ञान प्राप्त ना हुआ होता।
इतना सुनते ही राजा पीपा बेसुध हो गए। जैसे उसे होश ही न रहा। वह पश्चाताप करता हुआ संत रविदास की कुटिया में आकर उनके चरणों पर गिर पड़ा और चरणों को पकड़ कर बारंबार उनसे माफी मांगने लगा। संत रविदास ने कहा राजन मैं तो आपको अमृतरूपी ज्ञान देना चाहता था किंतु आपके भाग्य में यह नहीं था। विधाता की यही मर्जी थी। नहीं तो धोबी की कन्या के मुख में यह ज्ञानरूपी अमृत कैसे जाता और उसे कैसे ज्ञान की प्राप्ति होती?
इसलिए राजन आपको एक अंतिम ज्ञानोपदेश देता हूँ –
“जाती न देखें गुरु की, जब ज्ञान मिले अनंत।
अज्ञानी तू क्या जाने, जो रहे हमेशा कुसंत।।
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