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18 करोड़ का एक इंजेक्शन : लगता है सबसे महंगी बीमारी में।

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दोस्तों दुनिया विभिन्नताओं से भरी पड़ी है। कई बार हमें आश्चर्य होता है कि क्या वास्तव में ऐसा भी हो  सकता है? 

आज हम एक खास बीमारी की बात करने जा रहें हैं  जिसका इलाज करवाना किसी साधारण इंसान के बस की बात नहीं है। 

दोस्तों यह तो हम सभी जानते हैं कि कुछ बीमारियों का इलाज सम्भव है तो कुछ लाइलाज हैं।  कई बीमारियों के इलाज कम खर्च में ही हो जाते है।  लेकिन कइयों का खर्च थोड़ा महंगा पड़ता है।

ऐसी ही एक बीमारी है- स्पाइनल मस्क्यूलर एट्रॉफी (Spinal Muscular Atrophy). 

आइये जानते हैं, SMA बीमारी क्या होती है? 

यह बीमारी छोटे बच्चों में पाई जाती है। इसमें बच्चे की स्पाइनल कॉर्ड में लकवा हो जाता है जिससे शरीर का नर्वस सिस्टम ही बिगड़ जाता है। यह बीमारी शरीर में एक विशेष प्रकार की जीन जिसका नाम है – एसएमएन-1 की कमी से होता है। शरीर में एसएमएन-1 जीन की कमी होने से सीने की मांसपेशियां काफी कमजोर हो जाती हैं, जिससे सांस लेने में भी परेशानी होती है। सही समय पर इलाज नहीं हो पाने के कारण मरीज की मौत भी हो जाती है। 

बताते हैं कि किस दवा के उपयोग से SMA बीमारी ठीक हो सकती है।

इस बीमारी के इलाज के लिए एक इंजेक्शन है जिसे इंग्लैंड में अमेरिका, जर्मनी और जापान से मंगाया जाता है। इसका उत्पादन इंग्लैंड में अभी नही हुआ है। यह इंजेक्शन शरीर में जीन की कमी को पूरा करता है। जोलजेन्स्मा (Zolgensma) नामक दवा जिसका मात्र एक डोज ही शरीर में उस बीमारी को दूर करने की क्षमता रखता है।  यह दवा जैसे ही शरीर के अंदर जाता है, दवा अपना काम चालू कर देता है और अपर्याप्त जीन को पूरा करके बच्चे के नर्वस सिस्टम को सही करने में सहायक बनता है। 

जोलजेन्स्मा (Zolgensma) दवा की कीमत कितनी  है? 

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस बीमारी को दूर करने के लिए जोलजेन्स्मा (Zolgensma) नामक जो दवा बनाई गई है वह बहुत महंगी है जिसके एक डोज की कीमत 16 से 18 करोड़ रुपए के लगभग है। 

इंग्लैंड की नेशनल हेल्थ सर्विस ने स्पाइनल मस्क्यूलर एट्रॉफी (Spinal Muscular Atrophy) यानी SMA के इलाज के लिए इसे स्वीकृति प्रदान कर दी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक इंग्लैंड में हर साल लगभग 60 से 80 बच्चे इस खतरनाक बीमारी के साथ पैदा होते है।  दोस्तों आपको बता दें कि 2017 से पहले दुनियाँ में इस जानलेवा बीमारी का कोई इलाज नहीं था। लेकिन 2017 में इस बीमारी से लड़ने के लिए दवा का निर्माण अन्य देशों द्वारा कर लिया गया। 

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