रांची | झारखण्ड
भाकपा – माले राज्य कार्यालय में जननायक कर्पूरी ठाकुर की जन्मशती मनाया गया। कर्पूरी ठाकुर के तस्वीर पर माल्यार्पण और मौन श्रद्धांजलि के बाद सभा की गई. माले नेताओं क्रमश: विनोद लहरी, भीम साव, सुदामा खल्को, आइसा नेता त्रिलोकीनाथ, ऐपवा नेता नंदिता भट्टाचार्य, शिल्पी घोषाल, सोनाली केवट, अधिवक्ता सोहैल अंसारी आदि वक्ताओं ने कर्पूरी ठाकुर के व्यक्तित्व और राजनीतिक जीवन पर प्रकाश डाला वक्ताओं ने कहा कि वर्तमान में अभूतपूर्व राजनीति संकट है.
आजादी से हासिल लोकतंत्र और संविधान दांव पर है. देश गरीबी, बेरोजगारी और कॉरपोरेट लूट से तबाही के भंवर में फंसा हुआ है. मोदी सरकार के द्वारा लगातार जन अधिकारों को छीना जा रहा है और कानूनों में संशोधनों के जरिए भारत को फासिस्ट राज्य में तब्दील किया जा रहा है. संसद और तमाम अन्य संस्थाएं अपनी भूमिका से पतित होकर सरकार की हुक्मबरदारी कर रही हैं.
हमारे देश में सामाजिक न्याय का आंदोलन और नक्सलबाड़ी का कम्युनिस्ट आंदोलन दो व्यापक जन आंदोलन के रूप में उभरे. संविधान के लक्ष्यों को लागू करने और वंचित-उत्पीड़ित तबकों के पक्ष में बदलाव के लिए इन आंदोलनों ने बुनियादी जन जागरण पैदा किया है. आज धर्म और नफरत का उन्माद फैलाकर देश की अग्रगति को पीछे ओर धकेलने के लिए राज्यसत्ता का इस्तेमाल किया जा रहा है. कर्पूरी को याद करना केवल उन्हें श्रद्धांजलि देना भर नहीं है, बल्कि भाजपा-संघ के उन्माद से देश को बाहर निकालने के लिए आगे बढ़ना भी है.
कर्पूरी ठाकुर अत्यंत ही गरीब और हाशिए की पिछड़ी जाति परिवार से आते थे. अपने छात्र जीवन में ही वे आजादी के आंदोलन के साथ जुड़ गए थे. वे एआईएसएफ के सदस्य भी रहे. आजादी के बाद वे भारतीय सोशलिस्ट खेमे से जुड़ गए. उन्होंने अपनी पार्टी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी के साथ विलय कर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया.
“आजादी और रोटी” के नारे के साथ उन्होंने “सौ में पिछड़ा पाए साठ” को अपना राजनीतिक एजेंडा बनाया. दलितों पर बढ़ते जातिवादी हमलों के खिलाफ उन्होंने दलितों को सशस्त्र करने की मांग बुलंद की. एक जनप्रतिनिधि के रूप में वे ईमानदार और सड़क से सदन तक जूझने वाले नेता के रूप में जाने जाते है. 1977 में उन्होंने मुंगेरीलाल कमिशन को बिहार में लागू किया. आरक्षण में सभी पिछड़ी जातियों को इसका लाभ मिल सके इसके लिए उन्होंने आरक्षण के भीतर अति पिछड़ों के लिए भी आरक्षण का प्रावधान रखा. कर्पूरी फार्मुला के रूप में लोकप्रिय आरक्षण लागू करने के बाद कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ राजनीतिक विरोध भी बढ़ गया. खासकर जनसंघ (वर्तमान समय में भाजपा) का हमला उनपर राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर तीखा हो गया.
कर्पूरी ठाकुर जातीय उत्पीड़न-दमन और वंचना को गहराई से समझते थे. इसलिए उन्होंने भूमि सुधार के सवाल को भी शिद्दत से उठाया, सशक्त जमींदार और जोतदारों ने इस दिशा में उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया. उन्होंने भूमिहीन दलितों को भी हथियार देने की बात की थी. कर्पूरी ठाकुर स्वंय जिस तबके से आते थे, वोट की राजनीति के लिहाज से यह तबका बहुत प्रभावी नहीं है. लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने समाज के उत्पीड़ित-वंचित तबकों के बीच एकता कायम की और उन्हें 60-70 के दशक में बड़ी आंदोलनात्मक ताकत के रूप में खड़ा किया.
हमारी पार्टी भाकपा माले गरीबों और दलितों की क्रांतिकारी पार्टी है और पार्टी शुरुआती काल से ही वर्गीय-सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ व्यापक एकता कायम करने की दिशा में सफलतापुर्वक आगे बढ़ी है. कर्पूरी ठाकुर को उनके जन्मशती पर याद करना महज एक बड़े जननेता को याद करना नहीं है. इस संघी – कॉरपोरेट फासीवादी तानाशाही के दौर में उन्हें याद करना आज की निश्चित जिम्मेवारियों और चुनौती को पूरा करने का संकल्प लेना है.
ईमानदारी और जनता के प्रति प्रतिबद्धता से कोई समझौता किए बिना संघ और भाजपा के ब्राह्मणवादी राजनीति के खिलाफ जन प्रतिरोध खड़ा करना आज की मुख्य जिम्मेवारी है. अधूरे वर्गीय-सामाजिक आंदोलन को मंजिल तक पहुंचाने के लिए नवजागरण पैदा करने की चुनौती हम सबको कबूल करनी होगी. 2024 का लोकसभा चुनाव लोकतंत्र बनाम तानाशाही, आजादी-रोटी बनाम मनुवादी गुलामी, रोजगार बनाम कॉरपोरेट लूट को चुनने का निर्णायक अवसर है. हम निश्चित रूप से अपने जननायकों के रास्ते पर आगे बढ़ेंगे. बिरसा, भगत सिंह, सुभाष, अंबेदकर, गांधी के रास्ते पर बढ़ेंगे और फासीवाद को परास्त करेंगे.