नए-पुराने, जूता-चप्पल सिलाई करने वाला यह व्यक्ति मात्र 12 वीं पास है। लेकिन अपने ज्ञान की वजह से विश्वविद्यालयों में साहित्य की लेते हैं क्लास। इनके जीवन और साहित्य पर कई रिसर्च हो रहे हैं।
इनके बारे में जानकर संत रविदास जी की याद आ गई। पेशे से मोची लेकिन ज्ञान अद्वितीय। संत रविदास जी के बारे में कहा जाता है कि इनकी भक्ति देखकर स्वयं भगवान भी धरती पर आने लगे थे।
आज हम ऐसे ही एक ज्ञानी पुरुष के बारे में चर्चा करने जा रहे हैं।
चंडीगढ़ के टांडा रोड, सुभाष नगर के रहने वाले द्वारका भारती जी का जन्म 24 मार्च 1949 को हुआ था। पिछले 30 वर्षों से पंजाबी दलित साहित्य आंदोलन का नेतृत्व कर उसकी पहचान बरकरार रखने की कोशिश कर रहे हैं।
बचपन से ही साहित्य के प्रति लगाव होने की वजह से इनका ध्यान साहित्य की तरफ ही लगा रहा और आज इनके साहित्यिक ज्ञान से प्रभावित होकर ही विश्वविद्यालयों में लेक्चर देने के लिए बुलाया जाता है।
इनकी लिखी कविता ‘एकलव्य’ IGNOU (इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय) में एम.ए के विद्यार्थियों को पढ़ाई जाती है। तो वहीं पंजाब यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली दो छात्राएं इनके ‘मोची’ उपन्यास पर रिसर्च कर रही है। भारतीय दर्शन, कार्ल मार्क्स के विचार पश्चिमी व लैटिन अमेरिकी साहित्य इनके प्रमुख साहित्यिक अध्ययन का क्षेत्र हैं।
साधारण से दिखने वाले द्वारका भारती जी के बारे में जब जानेंगे तो निश्चित ही आप की आंखे भी भर आएंगी। कई बार गरीबी के कारण ज्ञानवान विद्यार्थियों का जीवन अंधकारमय हो जाता है। वे चाह कर भी अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच पाते। द्वारका भारती जी का जीवन भी कुछ इसी तरह से बिता। पेट की आग को शांत करने और घर चलाने के लिए मोची का काम करते हैं। लेकिन अपनी अंतरात्मा की आवाज को कभी अनसुना नहीं किया। साहित्य का सुकून उन्हें हमेशा लिखने की ओर प्रेरित करता रहा। 12 वीं पास होने के बावजूद इनकी रचना बेमिसाल है। जिसे साहित्यकारों ने कई भाषाओं में इनकी पुस्तकों का अनुवाद कर चुके हैं।
द्वारका जी कहते हैं – घर चलाने को गांठता हूँ जूते, और सुकून के लिए रचता हूँ साहित्य। उनका मानना है – जो व्यवसाय आपका भरण पोषण करे, वह इतना अधम हो ही नहीं सकता, जिसे करने में आपको शर्मिंदगी महसूस होगी।
सुभाष नगर में ही इनकी एक छोटी सी दुकान है जो आज भी किराए पर है। कहते हैं कलाकारों की हाथों में जान होता है। द्वारका भारती जी कलम के जादूगर तो है ही साथ ही अपने हाथों की करामात से नए और सुंदर जूते भी तैयार करते हैं।
हमेशा उनकी दुकान पर बड़ी-बड़ी गाड़ियों में साहित्य प्रेमी आते हैं और साहित्य पर उनसे ज्ञान लेते हैं।
द्वारका भारती ने अपने बारे में यह बताया है कि जब उन्होंने 12 वीं तक पढ़ाई पूरी कर ली तब वर्ष 1983 में होशियारपुर लौटे। तभी से अपने पुश्तैनी पेशे को संभालने लगे। साहित्य का बीज तो हृदय में बसा हुआ था बस अंकुरित होने की देर थी।
साहित्यकारों की किताबों को पढ़ना भी इनको खूब भाता था। इसी क्रम में डॉ.सुरेन्द्र अज्ञात की क्रांतिकारी लेख ने इन्हें प्रभावित किया और प्ररित हो ‘जूठन’ उपन्यास का पंजाबी भाषा में अनुवाद किया। उपन्यास को साल का बेस्ट सेलर का खिताब मिला। फिर क्या था एक के बाद एक इन्होंने साहित्य की दुनियां में आग लगा दी। पंजाबी उपन्यास मशालची का अनुवाद किया, वहीं हंस, दिनमान, दलित दर्शन, हिंदुत्व के दुर्ग, वागर्थ के साथ ही कई कविताएं, कहानी और निबंधों की रचना की।
द्वारका भारती ने सामाजिक जीवन के उन पहलुओं को महसूस किया है जो वास्तव में बहुत है शर्मनाक है। उन्होंने बताया कि ‘आज के समय में भी समाज में बर्तन धोने और जूते तैयार करने वाले मोची के काम को लोग हीनता की दृष्टि से देखते हैं, जो नकारात्मक सोच को दर्शाता है। आदमी को उसकी पेशा नहीं बल्कि उसका कर्म महान बनाता है।’
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