एक बार की बात है महाराज रणजीत सिंह अपने कुछ सैनिकों के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक जंगल मिला उसी जंगल के रास्ते वे आगे बढ़ने लगे।कुछ दूर चलने के बाद अचानक सामने से एक ईंट आकर उन्हें लगी। सैनिक सक्रिय हो कर चारों ओर खोजने लगे की ईंट आखिर चलाई किसने। आसपास किसी को कोई नहीं दिखा, उसी समय एक सैनिक की नज़र एक बूढ़ी औरत पर पड़ी। उसे गिरफ्तार कर लिया गया और महाराज रणजीत सिंह के सामने हाजिर किया गया।
बुढिया डर के मारे कांपने लगी। हाथ जोड़े काँपते हुए बोली- महाराज मेरा बच्चा कल से कुछ भी नहीं खाया है, वह बहुत भूखा है और घर में खाने को कुछ भी नहीं है। इसलिए मैं जंगल आ गई, सोचा जंगली फलों को ले जाकर अपने भूखे बच्चे को खिलाऊंगी। इसलिए पेड़ पर पत्थर मार रही थी किन्तु वह पत्थर भूलवश आपको आ लगा। महाराज मुझे क्षमा करें।
महाराज रणजीत सिंह उसकी सारी बातें बहुत ही ध्यान से सुन रहें थे। बुढ़िया की बातों को सुनने के बाद उन्होंने अपने एक सैनिक से कहा – इन्हें एक सौ सोने के सिक्के देकर सम्मान पूर्वक इनके घर तक पहुचाया जाए।
यह सुन दूसरे सैनिक ने पूछ ही लिया – महाराज, जिसे दण्ड मिलना चाहिए, आप उसे उपहार क्यों दे रहें हैं।
तब महाराज रणजीत सिंह बोले – पत्थर लगने पर वृक्ष मीठा फल दे सकता है, तो एक महाराजा उसे खाली हाथ कैसे लौटा दे ? वैसे भी ये प्रजा भी तो हमारी ही संतान है। प्रजा के सुख और दुःख की सारी जिम्मेदारी एक राजा पर ही निर्भर करती है। वह राजा किस काम का जो अपनी प्रजा का पेट न भर सकें।
सभी सैनिक महाराज रणजीत सिंह का जयकार करने लगे।
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