शिक्षा
..तो पर्दे के पीछे से ‘खेला’ कर रहा है चीन – निशिकांत ठाकुर

मन की व्यथा : भारत की स्वतंत्रता, विभाजन और पड़ोसी देशों के साथ वर्तमान तनावपूर्ण संबंधों की जटिलता को उजागर करते इस लेख में वरिष्ठ पत्रकार श्री निशिकांत ठाकुर ने इतिहास और वर्तमान राजनीति को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास किया है। यह लेख केवल अतीत की घटनाओं की समीक्षा नहीं करता, बल्कि वर्तमान समय में भारत के चारों ओर बनते अंतरराष्ट्रीय समीकरणों, खासकर चीन की ‘छाया रणनीति’ की ओर भी गंभीर संकेत करता है। लेख में विशेष रूप से इस बात पर बल दिया गया है कि किस तरह भारत के पुराने सहयोगी देश—बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल—अब भारत को आंखें दिखाने की स्थिति में आ गए हैं, और इसके पीछे चीन की रणनीतिक चालबाज़ी को जिम्मेदार ठहराया गया है।
📝 आइये, इस लेख में वरिष्ठ पत्रकार श्री निशिकांत ठाकुर जी की विचार धारा को समझते हैं जिसमें उन्होंने बड़ी गहरी बात कही है –
भारत को अंग्रेजों से आजादी दिलाने की भूमिका वर्षों पहले शुरू कर दी गई थी। फिर यह बात जब तय हो गई कि अब बंटवारा होकर ही रहेगा, तो प्रश्न यह उठने लगा कि इसका आधार क्या होगा? तब एक चुनाव हुआ जिसमें बढ़-चढ़कर हिंदू और मुसलमानों ने भाग लिया। निश्चय हुआ कि इस चुनाव में जिस तरफ जिसका बहुमत साबित होगा, उसी के अनुसार दो देश होंगे।
एक तो हिंदुस्तान ही रहेगा, नए देश का नाम पाकिस्तान होगा।
चूंकि संयुक्त पंजाब के आधे भाग के साथ पूर्वी बंगाल में भी मुस्लिम लीग को बहुमत मिला था, लेकिन इसके बावजूद कहा गया कि जिन्हें जिन्हें पाकिस्तान जाना हो, वे उधर जा सकते हैं और जिन्हें भारत की धरती प्यारी है, वह भारत में रह सकते हैं। इस अदला-बदली में काफी खून-खराबा हुआ और पाकिस्तान तथा पूर्वी पाकिस्तान का निर्माण हुआ।
भारत दो खंडों में बंट गया। भारत हिंदू बहुल, तो पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान मुस्लिम बहुल देश बन गए। जिनके लिए भारत की जमीन प्यारी थी, वह हिंदुस्तान को अपने पूर्वजों की धरती मानकर किसी बहकावे में न आकर भारत में ही रहकर अपनी उदारता का परिचय दिया। इसी प्रकार जो हिंदू मुस्लिम पाकिस्तान की मिट्टी को अपनी जमीन मानते थे, वे पाकिस्तान-पूर्वी पाकिस्तान के हो गए। भारत के बंटवारे का लगभग यही इतिहास है, लेकिन इसे आज इसे कई नजरिये से देखा जाता है। उस पर बाद में कभी बात होगी।
अंग्रेजों ने अपनी नीति इस तरह बनाई थी कि हिंदू और मुस्लिम कभी साथ न मिल सकें। वे रेल की पटरियों की तरह चलें तो साथ-साथ, लेकिन कहीं मिल न पाएं। इसलिए दोनों समूहों के बीच दंगे-फसाद होते रहे और अंग्रेज इसका लाभ उठाते रहे। पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान का भारत से अलग होने के कई कारणों में एक यह भी कारण रहा, जिसका बेजा लाभ अंग्रेज उठाते रहे और भारत-पाकिस्तान बनाकर अपने देश लौटकर चले गए। जो मुस्लिम पाकिस्तान चले गए, वे आज भी वहां उपेक्षित हैं और मुज़ाहिर कहलाते हैं। फिर समय-समय पर होने वाले दंगे में अपने पछतावे पर आंसू बहाते रहते हैं और अल्पसंख्यक होने के कारण अपनी इज्जत भी गंवाते रहते हैं।
वर्ष 1971 में भारत के विशेष सहयोग से पूर्वी पाकिस्तान कटकर बांग्ला देश बना, लेकिन कुछ समय तक तो बांग्ला देश भारत का ऋणी रहकर भारत के लिए समर्पित रहा, लेकिन वह केवल दिखावा था। आज वहां हिन्दू उपेक्षित हैं।
भारत से ही अपनी खुन्नस उतारकर बांग्ला देश समय-समय पर आंखें दिखाता रहता है। वैसे भारत में यदि कुछ होता है, तो वह उसका निजी मामला है और यदि बांग्ला देश में दंगे या कोई अत्याचार अल्पसंख्यकों पर होता है, तो यह उसका भी निजी आंतरिक मामला है। लेकिन, जब किसी समुदाय विशेष पर अत्याचार होता है, तो फिर वह किसी देश का निजी मामला नहीं हो सकता है। लेकिन, आज बांग्ला देश ही नहीं, जहां भी हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, वहां जब जानबूझकर अल्पसंख्यक के नाम पर उन्हें सताया जाने लगता है, वह अंतर्राष्ट्रीय मामला हो जाता है। भारत के मामले में चाहे पाकिस्तान ही क्यों ना हो, वहां के हिंदू भी अत्याचार के शिकार होने लगे हैं।
आज तो स्थिति यह है कि भारत की आंतरिक घटनाओं पर भी बांग्ला देश सलाह देने लगा है। बताते चलें कि भारत द्वारा जब सीमा पर तार लगाने की बात आई थी, तब भी ढाका में बांग्ला देश के अधिकारियों ने भारतीय अधिकारी को आँखें तरेर करके चेतावनी दी थी। उसके बाद तो ऐसा लगातार होने लगा, जब बांग्ला देश भारत के आंतरिक मामलों में भी हस्तक्षेप करने लगा और भारतीय अधिकारियों को ज्ञान देने लगा। दूसरी तरफ पाकिस्तान का तो भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना मानो जन्मसिद्ध अधिकार है।
इसी क्रम में देखें तो पिछले दिनों जब भारतीय संसद ने वक्फ संशोधन कानून संसद में पेश किया, तो उस पर भी उसने टिप्पणी की थी। फिर बांग्ला देश क्यों पीछे रहता! वह भी भारत के पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में हुए दंगों को लेकर हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है और आपत्तिजनक बयान दिया है, जिसे भारत ने खारिज कर दिया है।
भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणवीर जायसवाल ने ढाका में कहा भारत बांग्ला देश की टिप्पणी को खारिज करता है। जायसवाल ने कहा कि बांग्ला देश अपने यहां हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यकों की सुरक्षा पर ध्यान दे, न कि भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करे।
बांग्ला देश का जन्म ही 1971 में भारतीय सैनिकों द्वारा पाकिस्तान के लगभग एक लाख सैनिकों को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करने के साथ हुआ था, क्योंकि वहां पाकिस्तानी शासकों और सैनिकों द्वारा हिंसक कार्य किया जा रहा था। लेकिन, बांग्ला देश के तत्कालीन नेता मुजीबुर्र रहमान की याचना पर जनरल मानिक शाह को इस अभियान के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कार्यभार सौंपा, और जनरल मानिक शाह ने वह कर दिखाया जो विश्व पटल पर इतिहास बन गया। जनरल मानिक शाह के निर्देशन में पाकिस्तान के लगभग एक लाख सैनिकों को उनके ही देश में घेरकर समर्पण करने के लिए मजबूर किया, जिसके कारण विश्व के नक्शे पर बांग्ला देश स्थापित हो सका। लेकिन, हद तो तब हो गई जब बांग्ला देश के सैनिकों ने सरकार का तख्ता पलटने के लिए एक साजिश के तहत मुजीबुर्र रहमान सहित उनके पूरे परिवार को गोलियों से भून दिया। स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद तीन साल तक मुजीबुर रहमान बांग्ला देश के प्रधानमंत्री के रूप में सरकार का नेतृत्व किया था।
अब आज की स्थिति को फिर से देखते हैं। पाकिस्तान का भारत के प्रति हिंसक रूप तो शुरू से ही रहा है, लेकिन 1971 में पूर्वी पाकिस्तान बांग्ला देश के निर्माण को लेकर वह भारत को आरोपित करता रहा और भारत को इसका साजिशकर्ता बताता रहा।
अब भारत बांग्ला देश के साथ सदैव सदाशयता दिखाता रहा तथा हर मामले में उसकी मदद करता रहा, लेकिन यह इस देश का दुर्भाग्य रहा है कि जिस जिसने लोकतंत्र की बहाली के लिए पाकिस्तान की मदद की, उन सभी से इसने दुश्मनी मोल ली और अब तो भारत से भी पंगा लेने से बाज नहीं आ रहा है।
भारत की मीडिया में जो बात अब तक सामने आई है, उसमें यह कहा गया है कि बांग्ला देश उस समय से भारत के खिलाफ उग्र धारण कर चुका है, जब से भारत ने उसके तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना को अपने यहां शरण दिया है। भारत का प्रयास तो सदैव यही रहा है कि वह अपने पड़ोसियों के साथ मित्रता का व्यवहार करे, जिसका पालन वह करता भी है, लेकिन किसी विदेशी और विशेष रूप से चीन की आक्रामक नीति के कारण वह कमजोर होता जा रहा है। ऐसा किन कारणों से हो रहा है, निश्चित रूप से इसकी जांच होनी चाहिए और इसका पता लगाया जाना चाहिए कि भारत के प्रति इस प्रकार आक्रामक नीति अपनाकर चीन हमें क्यों घेर रहा है?
श्रीलंका, बांग्ला देश, नेपाल… जिसके भी साथ हमारा पुराना और मैत्रीपूर्ण संबंध रहा है, वे आज हमसे दूर क्यों होते जा रहे हैं और हमें ही लाल आंखें क्यों दिखा रहे हैं! निश्चित रूप से पाकिस्तान और चीन के पीछे खड़े होकर वह भारत के प्रति अनर्गल प्रलाप कर रहा है और हमारे आंतरिक मामलों में बार बार हस्तक्षेप कर रहा है।
जब तक किसी को दूसरे की शक्ति का आभास नहीं होता, कोई अपने से बड़े ताकतवर से नहीं टकरा सकता। बांग्ला देश, श्रीलंका, पाकिस्तान और नेपाल आखिर किसके बल पर भारत जैसे मजबूत और शक्तिशाली देश से टकराने की हिम्मत कर रहा है? यह बड़ा ही गंभीर अंतर्राष्ट्रीय मामला है।
- निशिकांत ठाकुर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं)
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Mobile: +91 9810053283
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🖋 लेख का संक्षेप:
निशिकांत ठाकुर का यह लेख भारत के विभाजन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से शुरू होता है और बताता है कि किस तरह धर्म के आधार पर देश विभाजित हुआ। इसके बाद लेख इस पर चर्चा करता है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में रह गए मुस्लिम अब भी उपेक्षित हैं और किस प्रकार वहां के हिंदू अल्पसंख्यकों को अत्याचारों का सामना करना पड़ता है।
लेख में वर्ष 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम और भारत की निर्णायक भूमिका का भी विस्तार से उल्लेख है, लेकिन यह भी इंगित किया गया है कि समय के साथ बांग्लादेश भारत के प्रति कृतघ्न व्यवहार दिखाने लगा। हाल ही में बांग्लादेश द्वारा भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप को लेकर लेखक ने कड़ी आलोचना की है।
इसके साथ ही लेख यह भी दर्शाता है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देश भारत को घेरने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं, और इसके पीछे चीन की रणनीति काम कर रही है। नेपाल, श्रीलंका, और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों का चीन की ओर झुकाव, भारत के लिए कूटनीतिक चुनौती बनता जा रहा है।
🔎 निष्कर्ष:
लेख इस प्रश्न के साथ समाप्त होता है कि भारत जैसे शक्तिशाली देश से कमजोर पड़ोसी टकराने की हिम्मत आखिर किसके बल पर कर रहे हैं? स्पष्ट संकेत चीन की ‘पर्दे के पीछे की खेल’ नीति की ओर है, जो भारत की सामरिक और कूटनीतिक स्थिति को कमजोर करने का प्रयास कर रही है। यह न केवल भारत की विदेश नीति के लिए गंभीर चेतावनी है, बल्कि राष्ट्रीय आत्मनिरीक्षण का भी विषय है।