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Tradition of Sati : सती प्रथा- एक क्रूर परंपरा की करुण गाथा

Tradition of Sati : “अग्नि की गवाही” – एक सती बनने से इंकार करती स्त्री की गाथा 🔥 (कल्पनात्मक कहानी)
(एक भावनात्मक, ऐतिहासिक और प्रेरक कथा)
सन् 1815, स्थान – राजपूताना। रेतीले धोरों के बीच फैला हुआ एक किला। महल के भीतर चंदन और धूप की गंध, पर बाहर चिता की तैयारी। राजा वीरसेन युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए हैं। उनकी पत्नी राजकुमारी सौरम्या — 22 वर्ष की, सुंदर, बुद्धिमती, और विचारशील — अब समाज के अनुसार ‘सती’ बनने वाली है।
शोक की नहीं, भय की रात
महल के भीतर सौरम्या की आंखों से आंसू बह रहे थे, पर वह केवल पति की मृत्यु पर नहीं रो रही थी —
बल्कि अपने ‘सजाए गए अंतिम दिन’ को लेकर डरी हुई थी।
बाहर महिलाएं ‘शुभ’ गीत गा रही थीं —
“धन्य है रानी, जो सती होगी, स्वर्ग में राजा के संग जाएगी।”
सौरम्या के कमरे में एक वृद्ध दासी आई — ‘बाइसू’।
उसने फुसफुसाकर कहा, “रानीसा, बच जाओ, बहुत देखी हैं मैंने, चिता पर जलतीं, चीखतीं, चुप होतीं।”
सौरम्या की आंखें फैल गईं। “पर समाज? मेरी माँ, मेरी प्रजा?”
“जो जिंदा रह जाता है, वही इतिहास लिखता है रानीसा।”
चिता की ओर यात्रा
अगले दिन सौरम्या को भांग और धतूरा पिलाया गया।
वह नशे में झूमती हुई कभी हँसती, कभी रोती — जैसे कोई कठपुतली हो।
रास्ते में वह एक बार ज़मीन पर लेट गई — और बोली:
“क्या राजा वीरसेन भी मेरी चिता जलवाते?”
बाइसू ने कहा, “नहीं रानीसा, वह तो आपको जीते देखना चाहते थे।”
लोग ढोल पीटते रहे, कोई कहता – “स्वर्ग की देवी बन रही है”,
पर सौरम्या के कानों में एक ही आवाज़ गूंज रही थी — “बचो…”
अंतिम क्षण नहीं, जीवन का आरंभ
चिता तैयार थी। बांस की मचिया भी। घी और राल के ढेर भी।
पर जैसे ही उसे चिता पर बैठाया गया —
सौरम्या उठ खड़ी हुई।
लोग चौंके।
उसने ऊँची आवाज़ में कहा:
“मैं राजा वीरसेन की विधवा हूँ, पर मैं मृत नहीं।
मुझे जलाना है, या मैं जलूं, यह निर्णय मेरा होगा — न कि समाज का!”
सभा में सन्नाटा था।
कुछ महिलाएं रो पड़ीं। एक बूढ़ा ब्राह्मण उठ खड़ा हुआ और बोला:
“धर्म उसे नहीं मारता जो जीना चाहती है।”
नई शुरुआत
सौरम्या ने महल त्याग दिया।
वह बनारस आ गई।
विधवाओं के लिए एक आश्रय स्थल खोला, जहाँ वह उन्हें पढ़ाती, लिखना सिखाती, आत्मनिर्भर बनाती।
कुछ सालों बाद उसकी मुलाकात राजा राममोहन राय से हुई।
उन्होंने कहा:
“आपका निर्णय एक ‘क्रांति’ है। आप ‘सती’ नहीं, ‘सजग’ हैं — इतिहास आपको नमन करेगा।”
📖 अंत नहीं, शुरुआत है ये…
सौरम्या के प्रयासों से उस क्षेत्र में सती प्रथा लगभग बंद हो गई। उसका नाम इतिहास में नहीं लिखा गया, पर हर उस स्त्री के मन में बस गया, जिसने जीने का निर्णय लिया।
💬 संदेश:
“सती होना शौर्य नहीं, सहना कमजोरी नहीं —
स्त्री का जीवन किसी आग की भेंट चढ़ाने लायक नहीं।”
👉 यह कहानी काल्पनिक है, पर ऐसी न जाने कितनी सौरम्याएं हमारे इतिहास में थीं, हैं और होंगी —
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आइये सती प्रथा का इतिहास के साथ जुड़ें महिलाओं के दर्द को समझने का प्रयास करते हैं।
📜 इतिहास और उत्पत्ति
सती प्रथा का इतिहास बहुत पुराना है। यह प्रथा इस विश्वास पर आधारित थी कि यदि किसी स्त्री का पति मर जाए, तो उसका धर्म है कि वह भी उसके साथ उसकी चिता पर बैठकर स्वयं को जला दे — यानी पति के साथ ‘सह-मरण’ करना ही उसका ‘धर्म’ है।
इस परंपरा के शुरुआती प्रमाण गुप्त काल (लगभग 4वीं सदी ईस्वी) में मिलते हैं, लेकिन राजपूत समाज में यह विशेष रूप से मध्यकाल (11वीं-17वीं सदी) में व्यापक रूप से प्रचलित हुई। यह परंपरा विशेषकर राजाओं, सेनानायकों और उच्च कुलीन वर्गों की स्त्रियों में अधिक देखी जाती थी।
💠 सती प्रथा का सामाजिक स्वरूप और क्रियाविधि
पति की मृत्यु के बाद, स्त्री को नशीले पदार्थ जैसे भांग, धतूरा आदि पिलाकर, उसे अर्ध-बेहोशी की हालत में चिता की ओर ले जाया जाता था।
- रास्ते में वह कभी रोती, कभी हँसती, कभी ज़मीन पर गिरती — यह सब उसकी मानसिक और शारीरिक स्थिति का परिणाम होता था।
- चिता पर उसे कच्चे बाँसों की मचियों से दबाया जाता था ताकि वह भाग न सके।
- फिर चिता पर घी, राल आदि डालकर तेज़ धुआं किया जाता ताकि कोई उसकी चीखें न सुन सके।
- ढोल, नगाड़े, शंख, करताल — सबका शोर इस क्रूरता को ढकने का माध्यम था।
📉 सामाजिक प्रभाव और महिलाओं की स्थिति
- सती प्रथा ने महिलाओं को स्वतंत्र व्यक्ति नहीं, बल्कि पति की संपत्ति बनाकर रख दिया।
- यह मान लिया गया कि पति के बिना स्त्री का जीवन व्यर्थ है।
- विधवाओं को समाज में सम्मान नहीं मिलता था, और कई बार समाज के दबाव में उन्हें सती होने के लिए मजबूर किया जाता था।
🔚 सती प्रथा का अंत – जागरण और संघर्ष की कहानी
सती प्रथा को समाप्त करने का श्रेय दो महान व्यक्तियों को जाता है:
1️⃣ राजा राममोहन राय (1772-1833)
- बंगाल के इस समाज सुधारक ने सती प्रथा को ‘मानवता के खिलाफ अपराध’ कहा।
- उन्होंने कई सती प्रकरणों की व्यक्तिगत जांच की, पीड़ित परिवारों से मिले और व्यापक जनजागरण किया।
- वे मानते थे कि “ईश्वर ने स्त्रियों को जीवन दिया है, न कि चिता की भेंट चढ़ाने के लिए।”
2️⃣ लॉर्ड विलियम बेंटिक (भारत के गवर्नर जनरल, 1828-1835)
- राजा राममोहन राय के प्रयासों से प्रेरित होकर उन्होंने 1829 में “सती प्रथा निषेध अधिनियम” (Bengal Sati Regulation) लागू किया।
- यह अधिनियम ब्रिटिश भारत में सती प्रथा को कानूनन अपराध घोषित करता था।
इसके बाद जो भी व्यक्ति सती में भाग लेता, उसका साथ देता या उकसाता — उसे दंडित किया जाता।
🧠 सामाजिक विश्लेषण
- सती प्रथा नारी के अस्तित्व, उसकी इच्छा और स्वतंत्रता का पूर्ण हनन थी।
- यह परंपरा पितृसत्तात्मक सोच का परिणाम थी, जहाँ नारी का जीवन केवल पति तक सीमित कर दिया गया।
- धर्म और संस्कृति के नाम पर निर्दोष नारियों को चिताओं में जला दिया गया, और इसे ‘वीरता’ और ‘पवित्रता’ का रूप दे दिया गया।
💬 आज के समाज के लिए संदेश
❝ जिस समाज में स्त्री को चिता की अग्नि में झोंक दिया जाए, वह कभी उन्नत नहीं हो सकता।❞
❝ स्त्री जीवन है, शक्ति है, सृजन है — उसे दमन नहीं, सम्मान चाहिए।❞
👉 आज हमें आवश्यकता है नारी के सम्मान, शिक्षा और अधिकार की।
👉 हमें अतीत की गलतियों से सीखते हुए एक ऐसा समाज बनाना है, जहाँ कोई परंपरा मानवता से ऊपर न हो।
सती प्रथा का अंत हुआ, लेकिन स्त्री संघर्ष अभी भी जारी है।
आइए, हम सब मिलकर एक ऐसे समाज का निर्माण करें जहाँ कोई भी महिला ‘सती’ नहीं, बल्कि ‘स्वाभिमानी’ हो।