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बिहार विधानसभा चुनाव और युवा भागीदारी : ज़िम्मेदारी, भ्रम और भविष्य की दिशा – निशिकांत ठा​कुर

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बिहार विधानसभा चुनाव 2025 : बिहार विधानसभा का चुनाव इसी वर्ष के अंत में प्रस्तावित है, और जो जानकारी छनकर सामने आ रही है, उसके अनुसार दीपावली और छठ के मध्य या उसके बाद चुनाव कराए जा सकते हैं। चुनाव हमारे देश का एक बहुत बड़ा, जिम्मेदारी भरा लोकतांत्रिक उत्सव होता है, जिसमें अधिकार प्राप्त हर नागरिक की भागीदारी आवश्यक रूप से होनी ही चाहिए।

किंतु, यह चिंता का विषय है कि मतदान का प्रतिशत दिनोंदिन गिरता जा रहा है, जिसे किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए उचित कतई नहीं कहा जा सकता। कई बार यह भी प्रतीत होता है कि हमारे युवा वर्ग अब उतने उत्साह से चुनावी प्रक्रिया में हिस्सा लेने से कतराने लगे हैं।

लेकिन बिहार एक बुद्धिजीवियों का प्रदेश है — जहां के हर नागरिक को अपने कर्तव्य और अधिकारों का ज्ञान है। वे चुनाव में उत्साहपूर्वक हिस्सा लेकर अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते हैं।

फिर भी, यह बात भी उतनी ही सच है कि यहां के लोग सीधे और सरल होते हैं, जिसका लाभ राजनीतिज्ञ अनर्गल प्रलाप करके उठाते रहते हैं।

यदि आप आज़ादी के बाद बिहार का इतिहास देखें, तो प्रदेश के राजनीतिज्ञों के बारे में सोचकर ही मन खिन्न हो जाता है।

समाज की सबसे बड़ी गलती यह होती है कि वह चतुर और स्वार्थी राजनेताओं के बहकावे में आकर निहायत ही अयोग्य प्रत्याशियों को चुनकर विधानसभा भेज देती है — और फिर अगले पांच वर्ष तक पछताती रहती है।

यह स्थिति उसी प्रकार होती है, जैसे कमान से निकला तीर लौटकर नहीं आता।

बेरोजगारी और युवा : बिहार का सबसे बड़ा संकट

आज यदि देश के किसी राज्य के युवा सर्वाधिक उपेक्षित हैं, तो उसमें सबसे ऊपर बिहार के युवाओं का नाम आता है।
आप देश के किसी भी शहर में चले जाइए — बिहार के युवा बेरोजगार आपको बिना ढूंढे ही मिल जाएंगे।

पिछले दिनों बिहार के एक पूर्व उद्योग मंत्री से हमारी बात हुई। बातचीत के क्रम में जब देश के अन्य राज्यों के विकास की चर्चा हुई, तो उनका उत्तर था —

“केंद्र सरकार के निर्देश पर अब बिहार ही नहीं, बल्कि किसी भी राज्य में सरकार द्वारा कोई नया उद्योग नहीं लगाया जाएगा। हां, यदि कोई निजी व्यक्ति उद्योग लगाना चाहता है, तो वह स्वतंत्र है।”

लेकिन प्रश्न यह है कि बिहार की छवि इस हद तक धूमिल कर दी गई है कि कोई भी व्यक्ति यहां उद्योग लगाने को तैयार नहीं होता।
अब यह जिम्मेदारी बिहार से बाहर रहने वाले लोगों को लेनी होगी कि वे प्रदेश की सकारात्मक छवि प्रस्तुत करें — अन्यथा यही स्थिति बनी रहेगी।

कुछ लोगों का मानना है कि बिजली और सड़कों की स्थिति अब सुधर चुकी है, फिर भी बाहर से कोई क्यों नहीं आ रहा — यह बात समझ से परे है।

इसलिए, चाहे सरकार हो या मीडिया — बिहार की छवि को सुधारने के लिए एक दीर्घकालिक, गंभीर और ईमानदार प्रयास की आवश्यकता है।

राजनीतिज्ञ तो एक-दूसरे की बुराई कर जनता को अपने पक्ष में करने में ही लगे रहते हैं, लेकिन राज्य से बाहर रहने वाले मीडिया से जुड़े लोग भी ऐसी बातें बोलते और लिखते हैं, जिससे प्रदेश की छवि को गहरा नुकसान होता है। उन्हें यह एहसास नहीं होता कि उनकी डपोरशंखी शेखी का असर न केवल देश और दुनिया पर, बल्कि विशेषकर बिहार पर कितना नकारात्मक पड़ता है।

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बिहार की राजनीतिक दिशा : जातिगत उलझनें और विकास का भ्रम

माना जाता है कि आज़ादी के बाद सबसे पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे नेता ने राज्य को आगे बढ़ाने का थोड़ा बहुत प्रयास किया था।
लेकिन उसके बाद जो भी नेता मुख्यमंत्री बने — वे जातिगत समीकरणों में ही उलझे रहे और जनता को भी उसी में उलझाए रखा।
परिणामतः राज्य गर्त में जाता गया।

भारत एक ही दिन स्वतंत्र हुआ था, लेकिन अन्य राज्यों की तुलना में बिहार आज भी काफी पिछड़ा हुआ है। यहाँ न केवल प्रदेश सरकार, बल्कि केंद्र सरकार भी सिर्फ वादे करती है, और जनता को सब्जबाग दिखाकर उन्हें भ्रमित करती है।

जनता भी बार-बार नेताओं की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ जाती है, और यही कारण है कि बिहार आज देश के सर्वाधिक पिछड़े राज्यों में गिना जाने लगा है।

आगामी चुनाव : अनुमान, समीकरण और संभावनाएं

जैसा कि पहले कहा गया है — इसी वर्ष दीपावली और छठ के दौरान या उसके आसपास चुनाव कराए जाएंगे।
चूंकि ये पर्व पूरे बिहार में बड़े धूमधाम से मनाए जाते हैं, इसलिए यदि चुनाव इन्हीं के दौरान कराए जाएं, तो मतदान प्रतिशत बढ़ने की संभावना है।

हालांकि यह एक अच्छी सोच है, परंतु इसके पीछे की रणनीति हर किसी की समझ में नहीं आती।
पिछले दिनों कुछ राज्यों में हुए चुनाव आज भी विवादों में हैं, लेकिन इसका सत्तारूढ़ दल पर कोई असर नहीं दिख रहा है।

उनका एक ही फॉर्मूला है — साम, दाम, दंड, भेद — किसी भी विधि से चुनाव जीतना है।

इसलिए अतीत के अनुभवों से सीख नहीं ली जाती, बल्कि नए शगूफों से जनता को लुभाया जाता है और फिर अपने पक्ष में मोड़ा जाता है।

यह भी कहा जाता है कि कुछ राज्यों में मतदाताओं को मतदान से वंचित कर दिया गया और समर्थकों के नाम कई वोटर लिस्टों में डलवाकर जीत सुनिश्चित की गई।

हालांकि कानूनी कार्यवाहियां होती हैं, लेकिन जब तक सच्चाई सामने आती है — तब तक पाँच साल बीत जाते हैं।

गठबंधन की स्थितियां : जेडीयू, बीजेपी और संभावित साझेदारी

अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि कौन किस गठबंधन में शामिल होकर चुनाव लड़ेगा।
परंतु जो जानकारियाँ मिल रही हैं, उनके अनुसार एनडीए और जेडीयू संयुक्त रूप से चुनाव लड़ सकते हैं।

सीट शेयरिंग को लेकर चर्चा जारी है — यदि समझौता हो जाता है, तो जेडीयू 102 से 103 सीटों पर और भाजपा 101 से 102 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है।
वरिष्ठ पत्रकार श्री सरोज सिंह के अनुसार, फिलहाल एनडीए का पलड़ा भारी है।

इसके अतिरिक्त, लोक जनशक्ति पार्टी को 40 सीटें, हिंदुस्तान लोक जनशक्ति पार्टी, हिंदुस्तान मोर्चा और राष्ट्रीय लोक मंच को भी कुछ सीटें मिल सकती हैं।

चिराग पासवान, जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा की मांगें आगे चलकर बढ़ सकती हैं। फिलहाल तो सब कयास हैं, लेकिन चुनावी गर्माहट धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है।

प्रधानमंत्री मधुबनी की सभा को संबोधित कर चुके हैं।

यह नहीं कहा जा सकता कि चुनाव तक प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता कितनी बार बिहार का दौरा करेंगे।
चुनावों में बाजी कब, कैसे पलट जाए — यह कहना कठिन होता है।

बिहार का भविष्य : शिक्षा ही समाधान

अंततः यही कहा जा सकता है कि “गर्भस्थ शिशु क्या होगा”, इसकी भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता।
इसलिए आगे की ओर देखकर चलिए — और बिहार की छवि को सुधारकर बनाए रखिए।

इस अवसर पर यह बात भी ज़रूर दोहराई जानी चाहिए कि — जब तक शिक्षा का शत-प्रतिशत प्रसार नहीं होगा, न केवल बिहार बल्कि पूरा भारत, पूरी दुनिया में उपेक्षित बना रहेगा।

– निशिकांत ठाकुर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं)

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