सिंहभूम सीट से 1957 के सांसद शंभु चरण गोडसोरा: “सांसद बनना बेकार, टाटा की नौकरी ही अच्छी थी”

सिंहभूम : सांसद बनने की तमन्ना आज हर किसी के दिल में होती है। इसके लिए लोग पूरी ताकत झोंक देते हैं। लेकिन भारतीय राजनीति में ऐसे उदाहरण भी हैं, जब सांसद या मंत्री बनने के बाद लोगों ने इस पद से मोह नहीं रखा। 1984 में अमिताभ बच्चन का राजनीति में आना और फिर उसे अलविदा कह देना एक प्रसिद्ध उदाहरण है। लेकिन झारखंड के सिंहभूम से 1957 में चुने गए सांसद शंभु चरण गोडसोरा की कहानी अनोखी और प्रेरक है।

जयपाल सिंह की नजरों में गोडसोरा की अहमियत

1957 के लोकसभा चुनाव में झारखंड पार्टी के नेता जयपाल सिंह ने शंभु चरण गोडसोरा को सिंहभूम सीट से पार्टी का प्रत्याशी बनाया। शंभु चरण का जन्म 1926 में जमशेदपुर में हुआ था। वे मुसाबनी के पास के एक गांव के निवासी थे। टाटा कंपनी में नौकरी करने के साथ-साथ वे मजदूर यूनियन और आदिवासी सभा के सरायकेला क्षेत्र के पहले सचिव भी थे। जयपाल सिंह उनकी नेतृत्व क्षमता और समाज में प्रभाव को समझते थे। यही कारण था कि उन्होंने शंभु चरण को टिकट दिया।

चुनाव में शंभु चरण ने सिद्दयू हेंब्रम को हराकर शानदार जीत दर्ज की और सांसद बने।

सांसद बनने के बाद की कठिनाई

शंभु चरण गोडसोरा ने कहा था, “चुनाव जीतने के बाद जब मैं संसद पहुंचा, तो शुरुआत में मुझे वहां मन नहीं लगा। संसद में अधिकांश लोग अंग्रेजी में बात करते थे और बहस करते थे। मुझे राजनीति का अनुभव नहीं था, और यह सब मेरे लिए बिल्कुल नया था। मैं खुद को वहां अनफिट महसूस करने लगा।”

उन्होंने अपने नेता जयपाल सिंह से कहा, “आपने मुझे कहां फंसा दिया। मेरा मन यहां नहीं लग रहा। इससे बेहतर तो टाटा की नौकरी थी। मैं इस्तीफा देकर नौकरी पर लौट जाना चाहता हूं।”

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जयपाल सिंह की सलाह और गोडसोरा का बदलता नजरिया

जयपाल सिंह ने गोडसोरा को समझाते हुए कहा, “घबराओ मत। संसद के नियमों को पढ़ो और सभी के साथ बहस करो। धीरे-धीरे सब कुछ समझ आ जाएगा। किसी भी हाल में इस्तीफा मत दो।”

जयपाल सिंह की सलाह मानकर शंभु चरण ने संसद के नियमों का अध्ययन शुरू किया। धीरे-धीरे उन्हें समझ में आने लगा कि राजनीति का उद्देश्य क्या है। इसके बाद उन्होंने संसद में जनता से जुड़े कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए और सक्रिय सांसद के रूप में पहचान बनाई।

राजनीति से वापसी और सादगी भरा जीवन

शंभु चरण गोडसोरा ने अपना पहला कार्यकाल पूरा किया, लेकिन दूसरी बार चुनाव नहीं लड़ा। वे जमशेदपुर लौट गए और टाटा कंपनी में अपनी नौकरी पूरी की। नौकरी के बाद उन्होंने अपने पैतृक गांव में खेती कर सादगीपूर्ण जीवन जिया।

शंभु चरण गोडसोरा ने अपनी जिम्मेदारियों को पूरी ईमानदारी से निभाया। उनकी कहानी यह दर्शाती है कि सादगी और ईमानदारी के साथ समाज सेवा कैसे की जा सकती है।

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