दोस्तों यह तो हम सभी जानते है की हमारे देश को आज़ादी इतनी आसानी से नहीं मिली है और इसे आज़ाद कराने में न जाने कितनी माताओं और बहनों ने अपने सपूतों की बलि दे दी है। असंख्य कुर्बानियों को देकर हमने ब्रिटिश हुकुमत से अन्ततः वर्ष 1947 को 15 अगस्त के दिन स्वर्णिंम संसार प्राप्त कर लिया। दोस्तों आज से हम उन वीर सपूतों की याद में एक नया टैग स्टार्ट करने जा रहें है जिसका नाम है देशभक्त। जिसमें देशभक्तों और स्वतंत्रता सेनानियों की जानकारी दी जाएगी। सबसे पहले हम याद करने जा रहें है नेताजी सुभाष चंद्र बोस को। आइये उनके बारे में कुछ जानने की कोशिश करते हैं।
सुभाषचन्द्र बोस और आजाद हिन्द फौज
(SUBHASH CHANDRA BOSE AND INDIAN NATIONAL ARMY)
सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 ई. को कटक में हुआ था। सुभाष के पिता जानकी नाथ और माता प्रभावती थीं। उनके पिता अत्यन्त धनी व्यक्ति और पेशे से वकील थे। इनका बचपन बड़ा ही सुखमय व लाड़-प्यार से बीता। इनके पिता अंग्रेजी सभ्यता को महत्व देते थे इस कारण उन्हें बचपन में ऐसे विद्यालयों में शिक्षा प्रदान करायी गयी जहां अंग्रेजों के बच्चे ही अध्ययन करते थे। सुभाष को यह विद्यालय व वहां का अंग्रेजी वातावरण कभी पसन्द नहीं आया। सुभाष जिस समय शिक्षा ग्रहण कर रहे थे उसी समय बंगाल में स्वदेशी आन्दोलन चल रहा था। इस आन्दोलन ने बालक सुभाष के हृदय को व्यापक रूप से प्रभावित किया। सुभाषचन्द्र बोस पर विवेकानन्द का भी अत्यधिक प्रभाव हुआ था। उन्हीं के प्रभाव के कारण उन्हें निर्धनों से विशेष प्रेम हो गया था तथा वे सदैव उनकी समस्याओं का समाधान करने का प्रयत्न करते थे। यही नहीं गांवों में महामारी फैलने पर वे गरीबों की सहायता करने के लिए गांव-गांव भी जाते थे। सुभाषचन्द्र बोस अत्यन्त मेधावी छात्र थे। 1913 ई. में उन्होंने प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, तत्पश्चात् उन्होंने प्रसिद्ध प्रेसीडेंसी कालेज में दाखिला लिया तथा 1915 ई. में एफ. ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके पश्चात् वे इसी कालेज से बी. ए. उत्तीर्ण करने के लिए अध्ययन करने लगे। इस दौरान एक अंग्रेज अध्यापक सी. एस. ओटन ने कक्षा में पढ़ाते हुए एक दिन कहा कि “यदि अंग्रेज भारत में न आते तो भारतीय सदैव असभ्य ही रहते।” सुभाष इस बात को सहन न कर सके, परिणामस्वरूप उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया। लगभग 18 महीने तक कालेज से बाहर रहने के बाद सर आशुतोष मुखर्जी की कृपा से उन्हें पुनः कॉलेज में दाखिला मिल गया। 1918 ई. में बी. ए. की परीक्षा भी उच्च अंकों के साथ उत्तीर्ण की। बी. ए. कर लेने के पश्चात् उनके पिता की इच्छा थी कि वे इंग्लैण्ड जाकर आई. सी. एस. (I.C.S.) की परीक्षा उत्तीर्ण कर उच्च अधिकारी बनें, किन्तु सुभाष ऐसा करना नहीं चाहते थे। वे आजीवन अविवाहित रहकर देश की सेवा करना तथा देश को स्वतन्त्र कराना चाहते थे। इस कारण उन्होंने अपने मित्र को लिखा, “देश में चारों ओर अंग्रेज अत्याचार कर रहे हैं। पिताजी की राय है, मैं आई.सी.एस. परीक्षा पास करके एक बड़ा अधिकारी बनूं पर मैं अधिकारी बनकर अपने ही लोगों पर अत्याचार करना नहीं चाहता। मैं क्या करूं? कुछ समझ में नहीं आ रहा है।” सुभाष के न चाहते हुए भी अन्ततः उन्हें इंग्लैण्ड जाना पड़ा। जहां उन्होंने 1920 ई. में आई.सी.एस. (I.C.S.) परीक्षा उत्तीर्ण की, किन्तु देश प्रेम की भावना के कारण अंग्रेजी शासन के अधीन नौकरी करना स्वीकार न किया। भारत लौटकर मात्र 24 वर्ष की आयु में सक्रिय राजनीति में भाग लेने लगे। उनके राजनीतिक गुरु देशबन्धु चितरंजन दास थे। 1921 ई. में प्रिंस ऑफ वेल्स (इंग्लैण्ड का राजकुमार) के भारत आगमन पर कांग्रेस ने उनका विरोध किया। कलकत्ता में प्रिंस ऑफ वेल्स के आगमन पर सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में विशाल जुलूस निकला। अंग्रेजी सरकार उनके इस कार्य से अत्यन्त क्रोधित हुई व उन पर सरकार विरोधी खबरें छापने का आरोप लगा कर उन्हें 1921 ई. में पहली बार छह माह की कैद की सजा दे दी गयी। सुभाष में संगठन की अद्भुत क्षमता थी तथा उनके भाषण अत्यन्त ओजस्वी होते थे जिन्होंने सम्पूर्ण बंगाल में देशभक्ति को निरन्तर सुदृढ़ किया। अंग्रेजी सरकार उनसे भयभीत रहती थी, इसी कारण उन्हें दस बार जेल में डाला गया व जीवन के लगभग 8 वर्ष उन्हें जेल में ही व्यतीत करने पड़े। 1923 ई. में चितरंजन दास द्वारा स्वराज्य दल की स्थापना किए जाने पर सुभाषचन्द्र बोस को इस दल के महामन्त्री का कार्य सौंपा गया। सुभाषचन्द्र बोस के प्रयत्नों से कलकत्ता नगर निगम के चुनावों में स्वराज्य दल को सफलता मिली। इसी समय सुभाषचन्द्र बोस ने कार्यवाहक अध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए अनेक क्रान्तिकारी कार्य किए। उन्होंने कलकत्ता की सड़कों के नाम अंग्रेजों के नाम से बदल कर भारतीय महापुरुषों के नाम पर कर दिए। सुभाषचन्द्र बोस कांग्रेस को शक्तिशाली बनाना चाहते थे, पर महात्मा गांधी के विचारों से वे कभी सहमत न हो सके। फिर भी गांधीजी के अनेक आन्दोलनों में उन्होंने भाग लिया था। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान जब महात्मा गांधी ने नमक कानून तोड़ा तो सुभाषचन्द्र बोस ने भी नमक कानून तोड़ा व गिरफ्तार हुए, किन्तु 1934 ई. में महात्मा गांधी द्वारा सविनय अवज्ञा आन्दोलन को वापस लिया गया तो उन्होंने महात्मा गांधी की कटु आलोचना की।
सुभाष चंद्र बोस द्वारा संचालित मिशनों के नाम निम्नलिखित है (Write the names of missions conducted by Subhash Chandra Bose) :
1. वर्ष 1938 ई. में कांग्रेस का अधिवेशन हरिपुरा में हुआ। इसमें अध्यक्ष पद के लिए सुभाषचन्द्र बोस ने गांधीजी की इच्छा के विरुद्ध अपना नामांकन कराया व पट्टाभि सीतारमैय्या को हरा कर कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए, लेकिन गांधी जी से वैचारिक मतभेद को देखते हुए उन्होंने अप्रैल, 1939 ई. में कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया व फारवर्ड ब्लाक’ (Forward Block) नामक दल बनाया।
2 . 18 मार्च, 1941 ई. को सुभाषचन्द्र बोस रूस से सहायता लेने के उद्देश्य से काबुल से मास्को पहुंचे, किन्तु इसी बीच जर्मनी द्वारा रूस पर आक्रमण कर दिए जाने के कारण रूस मित्र राष्ट्रों से मिल गया, अतः रूस से सहायता मिलने की सुभाषचन्द्र बोस की आशा पर पानी फिर गया, किन्तु मास्को में सुभाषचन्द्र बोस की भेंट जर्मनी के राजदूत से हुई व 28 मार्च, 1941 ई. को हवाई जहाज से बर्लिन पहुंचे जहां उनका भव्य स्वागत हुआ। बर्लिन में ही उनकी मुलाकात कु. एमिली शेन्केल (Miss Emily Schenkel ) से हुई जिन्होंने सुभाष चंद्र बोस की सेक्रेटरी के रूप में कार्य करना स्वीकार किया।
सुभाषचन्द्र बोस ने अपनी योजना से जर्मन सरकार को भी अवगत कराया, जिसका जर्मन सरकार ने स्वागत किया। तब सुभाषचन्द्र बोस ने फ्री इण्डिया सेन्टर (Free India Centre) की स्थापना की तथा इसके निम्नलिखित उद्देश्य घोषित किए गए : (1) भारतीयों को यह समाचार देना कि सैन्य राष्ट्रीय आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया गया है। (2) भारत की आजादी के लिए एक स्वतन्त्र सेना की स्थापना करना। (3) भारत के सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए योजना बनाने हेतु एक पृथक् इकाई की स्थापना करना।
3 . फ्री इण्डिया सेन्टर की प्रथम बैठक 2 नवम्बर, 1941 ई. को हुई जिसमें निम्नलिखित निर्णय लिए गये: (1) सुभाषचन्द्र बोस इस संस्था के अध्यक्ष होंगे व उन्हें भविष्य में ‘नेताजी’ के नाम से पुकारा जाएगा। (ii) स्वतन्त्र भारत के राष्ट्रीय गान के रूप में रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित ‘जन गण मन’ नामक गीत को स्वीकार किया गया। (iii) रोमन लिपि में हिन्दुस्तानी भाषा का प्रयोग किया जाएगा। (iv) अभिवादन के लिए ‘जय हिन्द’ का प्रयोग किया जाएगा।
4 . 28 मार्च से 30 मार्च, 1942 तक टोकियो में एक सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में भारत को स्वतन्त्र कराने के लिए एक सेना को संगठित करने का निर्णय किया गया। साथ ही एक ‘इण्डिया इण्डिपेण्डेन्स लीग’ की स्थापना की गई।इस सम्मेलन में यह भी निर्णय लिया गया कि जून, 1942 ई. में बैंकाक (थाईलैण्ड) में पुनः एक सम्मेलन आयोजित किया जाएगा।
5 . बैंकाक सम्मेलन (BANGKOK CONFERENCE 23 जून, 1942 ई. को बैंकाक का समोलन प्रारम्भ हुआ। इस सम्मेलन में एशिया के विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। इस सम्मेलन की अध्यक्षता रास बिहारी बोस ने की। इस सम्मेलन में ‘इण्डिया इण्डिपेण्डेन्स लीग’ के लिए कुछ सुझाव एवं सिद्धान्त निर्धारित किए गये। जिनमें प्रमुख थे : (i)एकता, विश्वास तथा त्याग (Unity, faith and Sacrifice) इस लीग का नारा (Motto) होगा। (ii) भारत अविभाज्य है। (iii) लीग का प्रत्येक कार्य धर्म निरपेक्ष होगा।
6 . आजाद हिन्द फौज का गठन फरवरी 1942 ई. में सुभाषचन्द्र बोस के विश्वसनीय साथी कप्तान मोहन सिंह ने जापान में की। कप्तान मोहनसिंह पहले ब्रिटिश भारतीय सेना में था, जिसे जापानियों ने बन्दी बनाया था। जापान में एक सिख साधु ज्ञानी प्रीतम सिंह व जापानी अफसर मेजर फूजीहारा के समझाने पर व अंग्रेजों के विरुद्ध हो गया था। सिंगापुर में बन्दी बनाये गये भारतीय सैनिकों को जापान ने कप्तान मोहनसिंह को सौंप दिया था, जिसने उनकी सहायता से यह फौज बनायी थी। 2 जुलाई, 1943 ई. को सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व सम्हाला तथा उन्हें स्वाधीनता लीग का अध्यक्ष बनाया गया तथा उन्हें ‘नेताजी’ कहा गया। आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व सम्हालते समय घोषणा की कि वे स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना तथा आजाद हिन्द फौज का संगठन करेंगे।
7 . सुभाषचन्द्र बोस द्वारा स्थापित अस्थायी सरकार को जापान, जर्मनी, चीन, इटली, कोरिया, फिलीपीन व आयरलैण्ड, आदि अनेक देशों की सरकारों ने मान्यता दे दी। जापान सरकार ने अण्डमान निकोबार द्वीप भी इस अस्थायी सरकार को सौंप दिए। दिसम्बर, 1943 ई. में वहां तिरंगा झंडा फहराया गया तथा इस सरकार की राजधानी रंगून को बनाया गया। सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज का स्वयं निरीक्षण करके उसका पुनर्गठन किया। इस सेना के तीन ब्रिगेड सुभाष, गांधी व नेहरू ब्रिगेड थे। स्त्रियों ने भी इस सेवा के कार्यों में भाग लिया व ‘झांसी की रानी रेजीमेन्ट तैयार की।
8 . 22 सितम्बर, 1944 ई. को सुभाषचन्द्र बोस ने शहीद दिवस’ मनाया तथा घोषणा की “हमारी मातृभूमि स्वतन्त्रता की खोज में है। तुम मुझे अपना खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।”
7 मई, 1945 ई.को जर्मनी ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली। 13 अगस्त, 1945 ई.को अमेरिका द्वारा जापान में हीरोशिमा व नागासाकी स्थाने पर परमाणु बम गिराये जाने से जापान ने भी पराजय स्वीकार कर ली। अंग्रेजों ने पुनः खोए हुए प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। इसी समय सुभाषचन्द्र बोस ने संगोन से टोकियो के लिए प्रस्थान किया, किन्तु दुर्भाग्यवश 18 अगस्त, 1945 ई. को थाईहोकू (Thaihoku) हवाई अड्डे के पास दिन में लगभग 2.40 बजे उनका वायुयान दुर्घटनाग्रस्त हो गया जिसमें कहा जाता है कि उनकी मृत्यु हो गयी। सुभाषचन्द्र बोस की मृत्यु के विषय में लोगों में मतभेद है। अनेक लोगों का मानना है कि वास्तव में, दुर्घटना में उनकी मृत्यु नहीं हुई थी, किन्तु यह विचार उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि प्रथम तो देश के स्वतन्त्र हुए बिना ही सुभाषचन्द्र बोस जीवित रहते हुए भी कहीं छिपे रहते यह उनके व्यक्तित्व के अनुकूल नहीं है। सुभाषचन्द्र बोस को भारत से इतना प्यार था कि यदि वे जीवित होते तो निश्चित रूप से की स्वतन्त्रता के लिए वे पुनः संघर्ष करते। इसके अतिरिक्त जिस समय उनका वायुयान दुर्घटनाग्रस्त हुआ था उनके साथ कर्नल हबीब थे जो कि जीवित बच गये थे। कर्नल हबीब के अनुसार दुर्घटना के पश्चात् सुभाष जीवित थे, किन्तु लगभग 6 वण्टे पश्चात् रात्रि 9 बजे अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गयी। हबीब के अनुसार नृत्यु से पहले सुभाषचन्द्र बोस ने कहा, ”हबीब मेरा अन्त निकट है। अपने देश को स्वतन्त्र कराने के लिए मैंने जीवन भर संघर्ष किया है। मैं अपने देश की स्वतन्त्रता के लिए मर रहा हूं। जाओ और मेरे देशवासियों से भारत की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष जारी रखने को कहो। भारत स्वतन्त्र होगा, शीघ्र ही।” ये सुभाषचन्द्र बोस के अन्तिम शब्द थे। आजाद हिन्द फौज के सैनिक देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत थे, किन्तु अनेक विद्वानों ने भारतीयों द्वारा जापान तथा फासीवादी ताकतों से सहायता लेकर भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्त करने के तरीके की आलोचना की है, किन्तु आजाद हिन्द फौज के महत्व को नकारना निश्चित रूप से उसके सेनानियों के प्रति अन्याय करना होगा। हमें यह याद रखना चाहिए कि विश्वयुद्ध के दौरान व भारत छोड़ो आन्दोलन के असफल हो जाने पर आजाद हिन्द फौज व सुभाषचन्द्र बोस ने ही भारतीयों को आशा की किरण दिखाई थी। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि आजाद हिन्द फौज ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा। सुभाषचन्द्र बोस भारत के एक अमर सपूत थे। उनकी असामयिक मृत्यु ने सम्पूर्ण विश्व को शोक के सागर में डुबो दिया था। राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था, “सुभाषचन्द्र बोस की मृत्यु देश के लिए एक अत्यन्त दुःखद घटना है। ऐसे लोग बहुत कम पैदा होते हैं, किन्तु जब उनकी मृत्यु होती है तो उससे उत्पन्न हुआ रिक्त स्थान आसानी से भरता नहीं है। हिटलर ने भी सुभाषचन्द्र बोस की प्रशंसा करते हुए कहा था, “नेताजी का महत्व मुझसे भी अधिक है। में केवल 8 करोड़ लोगों का नेता हूं जवकि वह 40 करोड़ लोगों के। प्रत्येक दृष्टिकोण से वह मुझसे बेहतर नेता व बेहतर सेनापति हैं। मैं तथा जर्मनी उनके आगे नतमस्तक हैं।‘ सुभाषचन्द्र बोस के असाधारण कार्यों के कारण ही कुछ इतिहासकारों ने उन्हें भारतीय नेपोलियन‘ कहा
मुकदमा (I. N. A. TRIALS)
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति पर आजाद हिन्द फौज के कुछ अफसरों पर मुकदमा चलाया गया तो सम्पूर्ण भारत में इसका विरोध हुआ। शाहनवाज खां, प्रेम सहगल तथा गुरुबख्श सिंह ढिल्लों पर कोर्ट मार्शल का मुकदमा लाल किला दिल्ली में चला। इस कोर्ट के अध्यक्ष (President) मेजर जनरल ब्लेक्शलैण्ड (Blaxlend), सदस्य-ब्रिगेडियर वार्क (Bourke), ले. कर्नल स्टाट (Stot), ले. कर्नल स्टीवेन्सन (Stevenson), के. कर्नल नासिर अली खान मेजर प्रीतम सिंह व मेजर बनवारी लाल थे। इन मुकदमों में सरकारी वकील सर एन. पी. इंजीनियर (तत्कालीन एडवोकेट जनरल) व ले. कर्नल पी. वाल्श थे। जबकि आजाद हिन्द फौज के अफसरों की ओर से पैरवी करने के लिए न केवल भारत के प्रसिद्ध वकीलों ने वरन् पं. जवाहर लाल नेहरू व जिन्ना ने वर्षों बाद पुनः वकीलों का काला गाउन पहना। इनके अतिरिक्त अन्य प्रमुख सफाई वकील थे सर तेज बहादुर सः, कैलाश नाथ काटजू, रावबहादुर बद्रीदास, असिफ अली, पी. एन. सेन, इत्यादि। आजाद हिन्द फौज के तीनों ही अफसरों पर ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध करने तथा कुछ व्यक्तियों की हत्या करने का आरोप लगाया गया था। सफाई पक्ष के वकीलों की वजनदार दलीलों के पश्चात् भी इन तीनों अधिकारियों को मृत्युदण्ड की सजा सुनाई गई। इस खबर से सम्पूर्ण भारत में आक्रश उत्पन्न हो गया तथा विवश होकर वायसराय को अपने विशेष अधिकारों का प्रयोग कर उन्हें मुक्त करने के आदेश देने पड़े । सम्भवतः सरकार को यह विश्वास होने लगा था कि शक्ति के द्वारा अब और दमन करन सम्भव न था, क्योंकि ‘भारतीय सेना भी इन तीनों व्यक्तियों को मुक्त कर दिये जाने के पक्ष में थी। अतः सरकार को यह स्पष्ट हो गया था कि शक्ति का प्रयोग करने पर सेना भी विद्रोह कर सकती थी। आजाद हिन्द फौज का भारतीय सैनिकों पर प्रभाव पड़ने के कारण ही सम्भवतः ऐसा हुआ था। शाहनवाज खां, प्रेम सहगल व गुरुवख्या सिंह के मुक्त होने पर उनक हार पहना कर भव्य स्वागत किया गया। इस अवसर पर कहा जाता है कि इंगलैण्ड के भूतपूर्व प्रधानमन्त्री चर्चिल ने अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा था कि वास्तव में उनके गले में हार नहीं वरन् फांसी का फन्दा होना चाहिए था। शाहनवाज खां, दिलों व सहगल की रिहाई के समर्थन में जनताधारण में उत्पन्न सरकार विरोधी आक्रोश से आजाद हिन्द फौज की लोकप्रियता एवं भारतीयों पर प्रभाव स्पष्ट हो जाता है।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस कितने भाई थे (How many brothers of Netaji Subhash)?
दोस्तों क्या आप को पता है नेता जी कितने भाई थे ? नेताजी सुभाष चंद्र बोस के एक बड़े भाई थे जिनका नाम शरत चंद्र बोस था, वो एक बैरिस्टर थे।