Surendra Singh |
Birth : 16 January 1967
Studied : Sir JJ Institute of Applied Art, Mumbai in 1990.
Hometown : Jamshedpur
Now Live : Ranchi
दोस्तों माय पेन टैग में जाने माने आर्टिस्ट और विचारक श्री सुरेंद्र सिंह के द्वारा लिखित सामाजिक जीवन से जुड़ें ज्वलंत मुद्दे और विचारों को जानने, समझने और सिखने को मिलने वाला हैं। इसलिए पढ़ते रहें ख़ास खबर THE NEWS FRAME पर।
उनकी कुछ विशेष बातें हम आपको बताने जा रहें हैं।
साधारण व्यक्तित्व वाले सुरेंद्र जी जन्म से ही कलात्मक और विचारात्मक प्रवृति के है। जीवन में कठिनाइयों का आना तो स्वाभाविक ही है। फलस्वरूप विद्यार्थी जीवन में इनकी कलात्मक पहचान धूमिल होती जा रही थी। लेकिन इनके परम् मित्र श्री अजित कुमार (जो की टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के ग्राफिक्स डिजाइनर रह चुके हैं और वर्तमान में जमशेदपुर के मानगो में प्राइमरी स्कुल चला रहें हैं। ) ने उनकी चमक को खोने नहीं दिया। इनकी सच्ची मित्रता ने इन्हें इनकी मंजिल तक पहुंचा ही दिया और आज सुरेंद्र जी कई बड़े संस्थाओं में कार्य करने के बाद स्वयं दूसरों का मार्गदर्शन कर रहें हैं।
आइये इस असाधारण लेकिन समाज को बदलने की तागत रखने वाले विचारक सुरेंद्र जी की विचारों से प्रेरणा ग्रहण करते हुए कुछ सिखने का प्रयास करते हैं।
विलुप्त हुए प्रतिभा के बाज़ार
1980-90 के दशक में पंचम दा जैसे म्यूज़िक डायरेक्टर को भी काम का आभाव सताने लगा था, वह अक्सर जूनियर आर्टिस्टों को भी कहने लगे थे, कि कोई काम कहीं मिले तो बताना। बड़े म्यूज़िक डायरेक्टर कल्याण जी आनंद जी, लक्ष्मी-प्यारे का दौर भी इस दशक में अस्त हो गया। देश- दुनिया जब तक समझती तब तक माफ़िया, अंडरवर्ल्ड के पैसों, फंडिंग ने इन तीस बर्षों में फिल्मी विरासत को उधेड़ कर रख दिया। और सिनेमा समाप्त हुआ (मेरी नज़रों में)
मशहूर गीतकार संतोष आनंद जी (सोनी एंटरटेनमेंट) पर मैं देख रहा था। बल्कि इनकी व्यथा, करूणा, दयनीय आर्थिक स्थिति, एक बड़ी संस्कृति का पतन मैं देख रहा था। फिल्म इंडस्ट्री के भेड़चाल व्यवस्था, नशेड़ियों, लाॅबीबाजों, दुबई, पाकिस्तान में बैठे माफियाओं ने महज 30 वर्षों में ऐसा रौंदा है कि हम इसकी कल्पना नही कर सकते। माफिया के आदेश पर निर्देशक, फिल्मकार, कलाकार, कथा-कहानी तय होने लगे। किसको फिक्र? किसको इसकी चिंता? वैसे भी भारत निद्रा में रहने वाला देश है।
अब फिल्म इंडस्ट्री माफिया, कोकीन, चरस, गांजा- सेवन, पियक्कड़ों के हाथों में है। पिछले तीस वर्षों में ना जाने कितने विद्वानों की गुणवत्ता विलुप्त हो गई। जहां कभी फिल्मकार दादा फालके, बिमल राॅय, गुरू दत्त, सत्यजीत रे, ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी, चेतन आनंद, विजय आनंद, महबूब ख़ान व अनेक यह वह लोग़ है जिन्होंने भारतीय फिल्मों की मजबूत बुनियाद रखी। वे भारत के संस्कृति, विरासत को परोसा। आज सच्चाई यही है कि भारत में गुणवत्ता की खोज नही, चाहे वह कोई भी क्षेत्र हो, या निर्माण हो। चाटूकारों और लफ्फबाजों ने जैसे भोजन से नमक ही निकाल दिया हो। सबकुछ। भारत को बे-स्वाद कर दिया है।
आज 12 सौ करोड़ के क्लब में जाने वाली फिल्मे भी पुरानी फिल्मों के आगे पानी भरता है। बेसूरे संगीत, फूहड़ कथा (स्क्रिप्ट) डाॅयलाग। किरदारों के बनावटी, झूठे चेहरे जमीन पर नही उतारते। अधूरे-अधकचरे हिन्दी- उर्दू अंग्रेज़ी का ज्ञान। टेक्नोलॉज़ी का घटिया उपयोग। इस देश का अपना अब कुछ भी नही।
1950-1975 हिन्दी सिनेमा का ‘स्वर्ण काल’ कहा जा सकता है। बंबई उन्हें ही अपने शरण में रखती थी, जिन्होंने अपनी जिंदगी एक कठिन-कठोर संघर्ष, तप-तपस्या और दहकते अंगारों से होकर गुज़रा है। प्रतिभाएं ऐसी जो भारत के विशाल संस्कृति को ना कि परोसते थे बल्कि भारत की विरासत को सहेजते भी थे। पर्दे पर लेखन, कथा, पटकथा, सूर-संगीत, नृत्य, कला, कलाकारों का किरदार, वेशभूषा, निर्देशन, तराशे गये शब्दों, पात्रो के चरित्र, सिनेमेटोग्राॅफी का अद्भुत ज्ञान का संगम था, ऐसे वज़नदार फिल्में देश की आत्मा थी। आज ऐसा लगता है कि पूरे देश में, फिल्म इंडस्ट्री में शरीर है आत्मा नही।
शहनाई वादक, सर्वश्रेष्ठ बिस्मिल्ला खां साहब कहते हैं रियाज से बढ़कर आचरण है, साधक आप तब नही, साधना तब तक प्राप्त नही की जा सकती। जब तक आप अपनी आत्मा को सच्चा नही बनाते। सुबह से लेकर रात तक आप एक झूठ ना बोलें यह भी कठिन साधना (रियाज) का माध्यम है। क्योंकि साधना ईश्वर का रूप है। और सिनेमा हो या संस्कृति, या सभ्यता या विरासत हमें सच्चे लोग़ों से मिला है और मिलेगी।