एक बार जापान (Japan) की राजधानी टोक्यो (Tokyo) में भारतीय संत स्वामी रामतीर्थ किसी कार्य वश गए हुए थे। संध्या के समय स्वामी जी सड़क पर टहलने के लिए निकले।
अचानक उन्हें दिखाई दिया की एक इमारत में आग लगी हुई है और कुछ लोग उसे बुझाने में व्यस्त है। यह देख वे उस स्थान पर जा पहुंचे। लोग मदद करते हुए उस मकान से फर्नीचर और कीमती सामान बाहर लाकर रख रहे थे। थोड़ी देर बीत जाने के बाद उनमें से एक व्यक्ति ने मकान मालिक से पूछा – “सर आपका और कोई कीमती सामान तो अंदर नहीं रह गया है।”
करोड़ों की संपत्ति को जलता देख मकान मालिक तो जैसे पगला गया था। यह सुन वह बाहर रखे सभी सामानों की ओर देख रहा था। उसने सुनिश्चित किया कि उसका बहुत-सा कीमती सामान अब सुरक्षित है। थोड़ी देर तक उसने राहत की सांस ली तभी अचानक उसे ख्याल आता है कि उसका बेटा तो अंदर ही सो रहा था और वह अभी तक बाहर नहीं आया है, वह तो अंदर ही रह गया। उसने चिल्लाते हुए खड़े लोगों से अपने बेटे को बाहर लाने की प्रार्थना की।
किंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। घर के अंदर का हिस्सा जलकर खाक हो चुका था। घर के अंदर जाने की किसी की हिम्मत नहीं हुई। आग को तेजी से बुझाया गया। आग के बुझ जाने पर उसके लड़के की जली लाश मिली। यह देख मकान मालिक बर्दाश्त न कर सका और छाती ठोक-ठोक कर विलाप करने लगा।
यह सारा प्रकरण स्वामी जी देख रहे थे। यह शोक और विलाप देख उनका मन रुग्ण हो गया। उन्होंने मकान मालिक को सांत्वना दी और वापस लौट आये। अब एकांत में बहुत देर तक बैठने के बाद अपनी डायरी में उस घटना का वर्णन लिखा।
और अंत में लिखा की इस संसार के निराली ही गति है। उस मकान मालिक के साथ जो घटित हुआ वह कुछ नया नहीं है।
प्रत्येक मनुष्य के साथ ऐसा होता ही रहता है लेकिन कोई भी इसपर ध्यान नहीं देता। व्यक्ति कीमती सामान को बचाने की फिक्र में लगा रहता है। यहां समझने की बात यह है कि जो वस्तु दिखाई देता है वह तो एक दिन खत्म हो जाता है लेकिन न दिखाई देने वाली जो मूल वस्तु होती है, जब नष्ट हो जाती है, तब मनुष्य को पश्चाताप करने के अलावा कोई रास्ता दिखाई नहीं देता।
लेकिन नुकसान हो जाने के बाद विलाप करने से क्या लाभ उसका ख्याल तो समय पर ही करना चाहिए।
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