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नदी को मां मानने वाला देश: विसर्जन परंपरा और जल प्रदूषण

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जल प्रदूषण पर एक विशेष खबर।

टिप्पणी: जलाशयों में पूजा उत्सवों के बाद मूर्तियों और पूजन सामग्रियों का विसर्जन, जल प्रदूषण का एक प्रमुख कारण माना जा सकता है। हर साल विशेषकर धार्मिक पर्वों के दौरान, पूजा-पाठ और अनुष्ठानों के बाद तालाब, पोखर या नदियों में मूर्तियों और सामग्रियों का विसर्जन किया जाता है, जिससे जलाशय प्रदूषित हो जाते हैं। यह समस्या जमशेदपुर के स्वर्णरेखा नदी घाट पर भी देखी जा सकती है, जहां विसर्जन के दौरान जल में हानिकारक तत्व मिलकर इसे प्रदूषित कर देते हैं।

हम एक ऐसे देश में रहते हैं, जहां नदियों को माँ का दर्जा दिया गया है। भारतीय संस्कृति में नदियों को पूज्यनीय माना गया है, फिर भी हम इन पवित्र जलस्रोतों को प्रदूषित करने से पीछे नहीं हटते। पूजा के दौरान मूर्तियों के साथ इस्तेमाल किए गए फूल, पत्ते, माला, सिंदूर, अबीर, हल्दी, और मिट्टी से बने कलश व दीये आदि सामग्री जब जलाशयों में प्रवाहित की जाती हैं, तो वे जल को प्रदूषित कर देती हैं। जल प्रदूषण की यह समस्या सिर्फ धार्मिक आयोजन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जन स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों पर गंभीर प्रभाव डालती है।

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स्वर्णरेखा नदी घाट पर हर साल बड़ी संख्या में मूर्तियों का विसर्जन होता है। इससे जल में घुलने वाले रासायनिक तत्व और ठोस कचरा बढ़ जाता है, जो जलीय जीवों के लिए हानिकारक साबित हो सकता है। इसके अलावा, इस प्रदूषित जल का इस्तेमाल करने वाले लोगों में जल जनित बीमारियों के फैलने का खतरा भी बढ़ जाता है। हालांकि, सरकार और स्थानीय प्रशासन ने इस समस्या पर काबू पाने के लिए ठोस कदम उठाए हैं।

जमशेदपुर के स्वर्णरेखा नदी घाट पर जल प्रदूषण की समस्या को हल करने के लिए प्रशासन और स्थानीय संस्थाएं मिलकर काम कर रही हैं। टाटा कंपनी की सहायक इकाई जुस्को (JUSCO) इस सफाई अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। विसर्जन के बाद मूर्तियों और अन्य सामग्रियों को घाट से हटाया जाता है, और उन्हें अलग-अलग हिस्सों में छांटा जाता है। छांटने के बाद इन सामग्रियों का सही तरीके से निष्पादन किया जाता है, ताकि वे दोबारा जल को प्रदूषित न कर सकें। इस प्रक्रिया से घाटों की सफाई सुनिश्चित की जा रही है और जल प्रदूषण को कम करने की कोशिशें की जा रही हैं।

साफ-सफाई और प्रशासनिक कार्रवाई के बावजूद, यह समस्या पूरी तरह से हल नहीं हो सकी है। इसके लिए नागरिकों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। हमें अपने धार्मिक आयोजनों के दौरान यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विसर्जन की प्रक्रिया से जलाशयों को नुकसान न पहुंचे। सरकार द्वारा बनाए गए वैकल्पिक विसर्जन केंद्रों का उपयोग करना चाहिए, जहां मूर्तियों का पर्यावरण के अनुकूल तरीके से निष्पादन किया जा सके।

इसके अलावा, हमें जल प्रदूषण के हानिकारक प्रभावों के बारे में जागरूकता बढ़ानी चाहिए। जल प्रदूषण से होने वाली बीमारियों जैसे हैजा, टाइफाइड, और पीलिया के बढ़ते मामलों पर काबू पाने के लिए कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है। केवल प्रशासन या संस्थाएं ही नहीं, बल्कि आम जनता को भी जल संरक्षण और स्वच्छता में सक्रिय भूमिका निभानी होगी।

अंततः, जलाशयों में विसर्जन की परंपरा हमारे धार्मिक विश्वासों का हिस्सा है, लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि यह परंपरा अगर जिम्मेदारी से नहीं निभाई गई तो हमारे जल स्रोतों के लिए नुकसानदायक हो सकती है। इसलिए, यह समय की मांग है कि हम अपने धार्मिक रीति-रिवाजों को पर्यावरण के साथ सामंजस्य में करें और जल संसाधनों की सुरक्षा के लिए सजग रहें।

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