जमशेदपुर | झारखण्ड
आज हम टूटते परिवारों और बिखरते समाज के जिस प्रेम -विहीन दौर से गुजर रहे हैं वह एक भयावह परिणाम की चेतावनी देता दिखाई देता है। भाई – भाई से और पड़ोसी – पड़ोसी से बेगाना है। एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखना और अपने-अपने दायरे में सिमट कर रहने का चलन बहुत बढ़ गया है। आपसी और सामाजिक सदभाव की यह कमी हमें और हमारे साथ देश, भारत को भी खतरनाक परिस्थितियों की ओर धकेल रही है। भारत में सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और सदभाव की एक लम्बी परम्परा और समृद्ध इतिहास रहा है। विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में दर्जनों धर्म व संप्रदाय, सैकड़ों संस्कृतियां और हज़ारों भाषाएं अपनी अपनी-अपनी पहचान के साथ यहां फूलती-फलती रहीं। विविधता में एकता यहां की ऐसी विशेषता रही जिसकी दूसरी मिसाल दुनिया में नहीं मिलती। लेकिन आज यह विशेषता धूमिल होती दिखाई देती है। इसीलिए हर वह व्यक्ति जो इस धरती से, यहां के लोगों से, यहां की रंगारंग संस्कृति से, यहां की भाषाओं से, संगीत से, नृत्य से, पहनावे से, खान-पान से, रीति-रिवाज से, परम्पराओं से प्रेम करता है उसका दायित्व है कि इन सबको बचाए रखे ताकि भारत अपने इस गौरवशाली अतीत के साथ सुन्दर भविष्य की ओर बढ़ सके।
गौतम बुद्ध, महाबीर, कबीर, नानक, रैदास, महात्मा गांधी, ज्यातिबा फुले, अम्बेडकर इत्यिादि हमारे महान विचारकों और समाज सुधारकों ने अपने-अपने समय में इस समस्या को पहचाना और अपने-अपने ढंग से इससे निपटने के उपाय किये। विगत 80 वर्षों से सकिय एक सांस्कृतिक संस्था के रूप में इप्टा (IPTA, इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) भी इस दिशा में निरंतर चिंतित और सक्रिय रही है। गत वर्ष इप्टा की पहल पर कई सांस्कृतिक सामाजिक व साहित्यिक संगठन एकजुट हुए और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इसके निवारण के लिये आमजन तक पहुंचना, उनकी सांस्कृतिक विरासत को याद दिलाना, उस विरासत को पुनर्जीवित करना, श्रम को सम्मान देना तथा प्रेम, बंधुत्व व समरसता को बढ़ावा देना आवश्यक है। इसी उद्देश्य से पिछले साल ढाई आखर प्रेम यात्रा के अंतर्गत कलाकारों, नाट्यकर्मियों, लेखकों व संस्कृतिकर्मियों ने पांच हिन्दी भाषी प्रदेशों में सघन दौरा किया।
इससे उत्साहित होकर इस वर्ष 22 राज्यों में यह यात्रा सांस्कृतिक पदयात्रा के तौर पर चल रही है। इसकी शुरूआत शहीद भगत सिंह के जन्म दिवस, 28 सितम्बर से अलवर, राजस्थान से हुई है और इसका समापन महात्मा गांधी शहादत दिवस पर 30 जनवरी को दिल्ली में होगा। झारखंड में यह यात्रा 8 दिसम्बर से 12 दिसम्बर की अवधि में घाटशिला से जमशेदपुर के बीच होगी। इसकी पूर्व संध्या पर 7 दिसम्बर की शाम महान साहित्यकार स्व. विभूति भूषण बंधोपाध्याय के निवास स्थान गौरीकुंज, घाटशिला में एक सांस्कृतिक उदघाटन कार्यकम होगा और सांकेतिक रूप से गौरीकुंज से मउभंडार तक पदयात्रा होगी। अगली सूबह मउभंडार से धरमबहाल, एदलबेड़ा, झांपड़ीशोल, बनकाठी, हेंदलजुड़ी होते हुए कालाझोर में रात्रि विश्राम होगा। दूसरे दिन राजबासा, खड़ियाडीह होते हुए गालूडीह तक यात्रा होगी। तीसरे दिन यह यात्रा बैराज पार करते हुए दिगड़ी मोड़, राखा, माटीगोड़ा, जादुगोड़ा से लुगु मुर्मू स्कूल, भटिन पहुंचेगी। चौथे दिन सोसोघुट्टू, झरिया, धोबनी, जादूगुट्टू, बाड़ेगुट्टू, डुंगरीडीह से गुजरते हुए राजदोहा पहुंचेगी। अंतिम दिन वहां से मुर्गाघुट्टू, हाडतोपा, डोमजुड़ी गोविन्दपुर होते हुए जेम्को, प्रेमनगर स्थित वरिष्ठ नागरिक समिति में विश्राम करेगी, जहां शाम में सांस्कृतिक कार्यकम भी आयोजित होगा।
यात्रा जहां से भी गुजरेगी वहां के स्थानीय लोक कलाकार झारखंड के विभिन्न जिलों से तथा देश के विभिनन भाग से आए कलाकारों व संस्कृतिकर्मियों के सामने अपनी प्रस्तुति करेंगे। बाहर से आए कलाकार भी अपनी कला व संस्कृति का नमूना पेश करेंगे। 13 दिसम्बर की सुबह यात्रा के प्रतिभागी साकची स्थित बिरसा मुंडा के स्मारक के पास सम्मान प्रकट करके यात्रा का विधिवत समापन करेगे।
आशा है कि इस यात्रा के दौरान संथाल बहुल आदिवासी गांवों से गुजरते हुए लोक कलाओं और संस्कृति की एक साझा समझ उभरेगी जो समाज को जोडने का काम करेगी।