कौन-सा धर्म सबसे श्रेष्ठ है?

र्म एक ऐसा विषय है जिस पर बात करना किसी की आस्था पर चोट भी कर सकता है। लेकिन हमारे समाज में धर्म की बात बताना, धर्म का उपदेश और ज्ञान देना यह पुण्य का काम समझा जाता है। लेकिन  क्या हो अगर धर्म का कोई ठीकेदार ही बन जाये, कोई जबरन धर्म परिवर्तन कराए तो कोई जबरन धर्म  के नाम पर रूढ़िवादियों में स्वयं के समाज को ही जकड़ दे। 

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दुनियां में लगभग 4300 से अधिक धर्म और समुदाय है और हम देखते हैं कि हर व्यक्ति अपने धर्म और विश्वास को लेकर कट्टर है। सबका यही मानना है कि वह प्राचीन, श्रेष्ठकर और सबसे पवित्र है। 

धर्म के शब्दार्थ में जाएंगे तो हम पाते हैं धर्म ‘धृ’ धातु से उत्पन्न माना जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ है धारण करना। अर्थात धर्म धारण करने की चीज है। धर्म किसी जाति या समुदाय प्रमुख का नहीं होता। धर्म स्वतंत्र है। जो जिस धर्म को धारण करता है या मानता है वह उसी धर्म का कहलाता है। 

यह तो हम सभी जानते हैं अच्छा और बुरा क्या है? लेकिन धर्म की आड़ लेकर कुछ लोग गलत काम करते हैं और उसे धर्म से जोड़कर अच्छा और सच्चा बनाने का ढोंग करते हैं। मजे की बात देखिये उस धर्म के मानने वाले लोग भी उसका विरोध तक नहीं करते और उनकी हाँ में हाँ मिलाते है। क्योंकि उस झूठ से उन्हें भी कहीं न कहीं लाभ ही मिलता है।

धर्म तो अपने आप में पवित्र और सत्य है। इसके ठीकेदारों ने इसे बदनाम कर रखा है। अपने कुविचारों के नीचे दबा रखा है। सत्य की पहचान ही नहीं करना चाहता है कोई। बस चंद किताबें क्या पढ़ ली हैं उसे ही ईश्वर मान बैठा है। 

समझने के लिए ईश्वर को हम एक किताब मान सकते है और धर्म उस किताब के पन्ने।

लेकिन क्या धर्म और ईश्वर दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं? लेकिन यह सत्य है कि ये दोनों अनंत है। हम तो मात्र एक क्षण हैं लेकिन फिर भी कितना घमंड है। ईश्वर के क्षण भर के जीवन में हमारा सारा ब्रह्मांड सिमटा हुआ है। हम उसकी कल्पना तक नहीं कर सकते। फिर भी लोग उसके नाम से कितना बहकाते हैं। लोभ देते हैं, डराते हैं, दूसरों को मारते हैं, तकलीफ देते हैं, धर्म के नाम पर हत्या तक कर देते हैं।

ऐसे लोगों से एक सवाल है- क्या एक पल की जिंदगी में ईश्वर को समझ गए? 


कितने मूर्ख हैं वे लोग जो धर्म के नाम पर बलात्कार, हत्या, लूटपाट करते हैं। और मजे की बात देखिये धर्म के ठीकेदार हाथ पर हाथ रखकर सब देखते हैं। मानों उसे बढ़ावा दे रहे हैं।

वैसे धर्म तो स्वयं से धारण करने का विषय है। किसी के कहने या बहकाने से धर्म नहीं अपनाया जाता। तब तो यह लालच और स्वार्थ परक हो जाता है। फिर इसमें न ईश्वर का वास हो पाता है न सत्य का। और जन्म लेता है केवल अपराध। 

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