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धार्मिक

ईश्वर के दर्शन केवल उन्हें ही मिलता है जिसका मन विकार रहित होगा।

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हुत समय पहले की बात है किसी गांव में दो ब्राह्मण दोस्त रहते थे। दोनों ईश्वर की खूब भक्ति करते थे। एक गरीब था जिसका नाम धन्ना और दूसरा अमीर था जिसका नाम त्रिलोचन था। 

त्रिलोचन बहुत घमंडी था, वह अपने आपको ईश्वर का बहुत बड़ा भक्त मानता था। जिस वजह से वह धन्ना और अन्य ब्राह्मणों से जलता था।

इस बात को धन्ना बखूबी समझता था, किंतु मित्रता की वजह से उसकी यह जलन को ध्यान नहीं देता था। फिर एक दिन उसने सोचा कि इसका घमंड दूर किया जाए ताकि इसे भी सद्ज्ञान मिल सके। इसलिए एक दिन धन्ना उसके घर गया, उस समय त्रिलोचन पूजा पाठ में व्यस्त था। धन्ना बाहर ही नीचे बैठ गया और पूजा खत्म होने का इंतजार करने लगा। 

काफी देर बाद त्रिलोचन पूजा खत्म करके बाहर आया। तो उसने देखा धन्ना बाहर बैठा हुआ है। 

त्रिलोचन को देख धन्ना ने पूछा- 

“आपकी पूजा हो गई।”

त्रिलोचन ने बड़े शान से कहा – “हाँ, हो गई।” 

इस पर धन्ना ने फिर कहा – “आप तो बहुत देर तक ईश्वर की पूजा करते हैं।” 

त्रिलोचन ने बड़े घमण्ड से कहा – “और नहीं तो क्या? ईश्वर की पूजा कोई सरल कार्य नहीं हैं। जो कोई भी कर सके।”

धन्ना त्रिलोचन के मन की बात को जान रहा था। उसने फिर कहा – “क्या, पूजा करने के लिए आप अपने ईश्वर को मुझे देंगे? मैं भी उनकी भक्ति करना चाहता हूं।

यह सुन त्रिलोचन रुआब से बोला – “ईश्वर इतने सस्ते नहीं हैं, जो भी मांगे उसे दे दूँ और वैसे भी वो सबकी भक्ति से खुश भी नहीं रहते।” 

इसपर धन्ना ने बड़े प्रेम से कहा – “आप जो भी कीमत मांगे मैं देने को तैयार हूं।”

यह सुन त्रिलोचन सोचने लगा सस्ते में खरीदा हुआ मूर्ति क्यों न इस मूर्ख को महंगे में बेच दूँ। और धन्ना से कहा – “ठीक है यदि तुम्हारी जिद है तो एक दुधारू पशु के बदले तुम्हें मैं अपने ईश्वर को दे सकता हूँ।”

यह सुन धन्ना अपने घर आया और एक दुधारू गाय लेकर त्रिलोचन के पास पहुंच गया। यह देख त्रिलोचन भी हैरान रह गया। सोचने लगा कैसा मूर्ख है। जो छोटी सी मूर्ति के लिए कीमती गाय लेकर आया है। खैर मुझे तो फायदा मिल रहा है। इसे मूर्ख बनाया जाए।

त्रिलोचन – “लाओ इस पशु को मुझे दो और मैं लाता हूँ तुम्हारे लिए ईश्वर।”

गाय को एक खूंटे से बांध वो घर के अंदर गया। अंदर उसे एक माटी का खिलौना दिखाई दिया। उसे देख वह फिर सोचने लगा क्यों न यह खिलौना ही उस मूर्ख को दे दिया जाए। 

छोटे से हथेली बराबर उस माटी की मूर्ति को लाकर उसने धन्ना को देते हुए कहा – “यह लो यह कोई साधारण ईश्वर की मूर्ति नहीं हैं। बल्कि समुद्र मंथन के समय निकला अद्वितीय मूर्ति है। इसके पूजा से ईश्वर तुमपर हमेशा खुश रहेंगे।” 

धन्ना ने उस मूर्ति को ले लिया और खुशी-खुशी अपने घर वापस आ गया। 

कुछ दिन बीत जाने के बाद अचानक एक दिन धन्ना दौड़ता हुआ त्रिलोचन के घर पहुंचा। आज भी त्रिलोचन उस समय पूजा कर रहा था। पूजा खत्म करके वह धन्ना से बोला – “अरे क्या है धन्ना, अब तुम्हें क्या चाहिए जो इतनी सुबह-सुबह आ गए।”

यह सुन धन्ना बोला – “त्रिलोचन तुमने जो ईश्वर मुझे दिया था वो तो मेरी पूजा से खुश होकर मेरे घर का काम करने लगे हैं। तुमने वाकई मेरी किस्मत बदल दी है। अब मैं बड़े आराम से रहता हूँ।”

पहले तो त्रिलोचन कुछ समझ नहीं पाया और बोला- “अरे झूठ क्यों बोलता है, भला ईश्वर भी किसी मनुष्य का काम कर सकते हैं।”

धन्ना – “मुझे क्या पड़ी है, जो मैं तुमसे झूठ बोलूं।अगर मेरी बातों पर यकीन ना हो तो चलकर मेरे घर पर अपनी आंखों से खुद देख लो।”

अब इस बात को सुनकर त्रिलोचन भी सच जानने को उत्सुक होने लगा। और धन्ना के साथ उसके घर आ गया।

धन्ना ने एक ओर इशारा करते हुए बोला – “खुद ही अपनी आंखों से देख लीजिए।”

त्रिलोचन ने उस ओर देखकर कहा – “अरे क्यों मूर्ख बनाते हो मुझे तो कोई नहीं दिख रहा उधर।”

धन्ना ने कहा -“त्रिलोचन ध्यान से देखो उस रहट को, जिसे स्वयं ईश्वर चला रहे हैं और घर के अंदर देखो जो घर में झाड़ू लगा रहे हैं।”

त्रिलोचन ने जब दूर देखा तो हक्का बक्का रह गया।  रहट चल रही थी और उसमें से पानी भी निकल रहा था। लेकिन आश्चर्य वहां कोई न दिखा। घर के अंदर झांक कर देखा झाड़ू से सफाई तो हो रही थी लेकिन झाड़ू चलाने वाला न दिखा।

त्रिलोचन यह सोचने लगा कि ऐसा कैसे हो सकता है? ईश्वर इसे दिखते ही नहीं इसके घर के काम में हाथ भी बंटा रहे हैं। यह सब देख उसने कहा – “धन्ना तुमने कैसी भक्ति की जो ईश्वर तुम्हें केवल दिख ही नहीं रहे बल्कि तुम्हारे कार्यों में हाथ भी बंटा रहे हैं।” 

तभी धन्ना कहते हैं – “आओ त्रिलोचन तुम्हें ईश्वर से मिलवाता हूँ।” 

दोनों घर के अंदर गए। त्रिलोचन ने सामने देखा उसके द्वारा दिया हुआ मूर्ति पूजा घर में बड़ी श्रद्धा के साथ रखा हुआ है। जहां फूलों की माला, धूप दीप आदि से सुसज्जित है। और उसके आराध्य देव की छवि उसमें दिखाई देने लगी है। यह देख त्रिलोचन धन्ना के पैरों पर गिर पड़ा और मांफी मांगते हुए कहने लगा – “धन्ना तुम धन्य हो। जो ईश्वर ने तुम्हें चुना। तुम्हें न सिर्फ दर्शन होते हैं बल्कि वे तुम्हारे घर के कार्यों में हाथ भी बंटाते हैं। मैं तुम्हें मूर्ख समझ कर कीमती गाय के बदले एक माटी का खिलौना सौंप दिया था। मुझे क्षमा करो मित्र, मूर्ख तो मैं था जो तुम्हारे प्रेम और भक्ति को न समझ सका।”

धन्ना उसे उठाते हुए कहते हैं – “त्रिलोचन ईश्वर की लीला तो वही जाने मित्र। लेकिन जिसमें बुराइयां होंगी, उसे ईश्वर के दर्शन भला कैसे हो सकते हैं। जब मन के विकारों को दूर कर, मन शुद्ध रख करके, शुद्ध अंतःकरण तथा सच्ची लगन से उनकी प्रार्थना करने पर वे अवश्य दर्शन देंगे। जिसका मन विकार रहित होगा उसके सारे दोष और क्लेश मिट जाएंगे।”

त्रिलोचन धन्ना की भक्ति को समझ गया और वह उनका भक्त बन गया।

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