योग के नियमित अभ्यास से शरीर निरोग तो बनता ही है, साथ ही मन की शुद्धि भी होती है।
सिद्धि पाने के लिए कुण्डलिनी का जागृत होना आवश्यक है उसी प्रकार कुण्डलिनी जागृत करने के लिए बन्ध एवं मुद्राएं आवश्यक हैं। ये बंध एक प्रकार से शरीर के प्राणवायु के लिए लॉक है। अर्थात प्राण को लॉक कर देना ताला लगा देना, बांध देना।
कई बार इस तरह के प्रश्न किये जाते हैं कि क्या योगासन या योगसाधना के द्वारा कुंडलिनी जागृत की जा सकती हैं? तो इसका सरल सा जवाब होगा- हाँ।
वहीं कुछ लोग यह भी पूछते हैं कि क्या योगासन किसी धर्म विशेष से संबंधित है? तो इसके जवाब में बता दूं कि यह शारिरिक क्रिया है। जिसका किसी भी धर्म विशेष से सीधा संबंध नहीं है। यह भारतीय भूमि में जन्मा है। और यह बहुत ही प्राचीन विषय है। अथर्ववेद में योगासन के बारे में विस्तार से लिखा गया है। इसलिए कुछ विद्वानों को ऐसा लगता है कि यह धार्मिक विषय से सम्बन्धित है। जबकि यह केवल शारीरिक क्रियाओं को करते हुए शरीर को पूर्ण रूप से शक्तिशाली बनाने का विषय है। जिसे लगातार अभ्यास द्वारा प्रत्येक मनुष्य निरोग रहते हुए असंख्य लाभ प्राप्त कर सकता है। यह प्राचीन भारतीय सभ्यता से जुड़ा एक अद्वितीय विषय है। जिसके पालन से मनुष्य जीवन भर निरोग रह सकता है।
योग के नियमित अभ्यास से शरीर निरोग तो बनता ही है, साथ ही मन की शुद्धि भी होती है। यदि योगासन का सम्पूर्ण लाभ आप प्राप्त करना चाहते हैं तो शरीर की कुण्डलिनीयों का जागृत होना अति आवश्यक है। शरीर में 7 स्थानों पर कुंडलिनी का स्थान है। शरीर की सातों कुंडलिनी तब जागृत होती है जब रीढ़ की हड्डी बिल्कुल सीधी हो। इसके लिए सतत योगाभ्यास की आवश्यकता है। इनके जागृत होने के बाद मनुष्य साधारण से आसाधारण व्यक्ति बन सकता है। इस विषय पर हम जल्द ही लेख लेकर आने वाले हैं। जैसा कि योग में सिद्धि पाने के लिए कुण्डलिनी का जागृत होना आवश्यक है उसी प्रकार कुण्डलिनी जागृत करने के लिए बन्ध एवं मुद्राएं आवश्यक हैं। आज हम बंध के बारे में जानेंगे।
ये बंध एक प्रकार से शरीर के प्राणवायु के लिए लॉक है। अर्थात प्राण को लॉक कर देना ताला लगा देना, बांध देना। एक जगह पर रोक देना।
योग में चार प्रकार के बन्ध होते हैं-
1. मूलबन्ध
2. उड्डीयान बन्ध
3. जालन्धर बन्ध
4. महाबन्ध
बन्ध का अर्थ ‘बन्धन’ से है। ऐसा बन्धन जो ध्यान तथा कुण्डलिनी को जागृत करने और उसकी सरल गति में लाभ पहुंचाना हैं। आइये इन चारों बांधों के बारे में जानते हैं।
1. मूलबन्ध – यह योगचरण का सबसे पहला बंध/बांध है। किसी भी आसन में बैठते समय गुदा मूल अथवा आधार होती है। गुदा एवं लिंग के वाहनियों के संकुचन या बन्द करने के कारण इसे मूलबन्ध कहते है। सिद्धासन, पद्मासन या सरल आसन की स्थिति में बैठ कर गुदा व लिंग की मांसपेशियों को भीतर संकुचित कर, अपानवायु को धीरे-धीरे ऊपर खींचने की क्रिया मूलबन्ध है। किन्तु नए साधकों को सबसे पहले बैठकर इसका अभ्यास करना चाहिए। इसके लिए बाएं पैर की एड़ी को गुदा के समीप ले जाकर, गुदा द्वार को एड़ी द्वारा दबाया जाना चाहिए। इससे संकोचन की क्रिया सरल और अतिरिक्त बोझ रहित हो जाता है, जिससे संकोचन के स्थायित्व में सहायता मिलती है।
लाभ – इस बंध से अपानवायु ऊपर की ओर बढ़ते हुए प्राण के साथ मिलती है जिससे कुण्डलिनी शक्ति सीधी होकर ऊपर चढ़ती है। ब्रह्मचर्य की साधना में सहायता मिलती है क्योंकि इससे वीर्य की गति भी ऊपर की ओर होती है। जिससे वीर्यरक्षा होती है शरीर का तेज बढ़ता है। पेट संबंधित विकार जैसे – कब्ज, गैस, पेट की चर्बी आदि समस्याएं दूर होती है जिससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है। जिन्हें भूख नहीं लगती, पेट हमेशा भरा-भरा लगता है उनके भूख को बढ़ाने में भी सहायक है। वहीं इसके नियमित अभ्यास से स्तम्भन शक्ति में वृद्धि होती है।
2. उड्डीयान बन्ध – सिद्धासन, पद्मासन या सरल आसन की स्थिति में बैठ कर पेट और नाभी के आसपास के भाग को बलपूर्वक भीतर खींचकर पीछे, कमर के साथ चिपकाए रखने की क्रिया ही उड्डीयान बन्ध है। इस बांध के लगाने से पेट के स्थान पर एक गड्डा-सा दिखाई देने लगता है। ध्यान के सभी आसनों में उड्डीयान बन्ध लगाया जा सकता है। इसे उड्डीयान बन्ध इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें प्राण पक्षी की तरह सुषुम्ना की ओर उड़ने लगता है। अतः इसको उड्डियान बन्ध कहा जाता है।
लाभ – इस बन्ध का सबसे बड़ा लाभ पेट संबंधित व्याधियों से है। जिन्हें भूख नहीं लगती है उनकी भूख खुलने लगती है। यह मन्दाग्नि का नाश करके जठराग्नि प्रदीप्त करती है। वहीं फेफड़े भी शक्तिशाली बनते हैं। प्राणवायु तथा वीर्य की गति ऊपर की ओर होने से चमक बढ़ता है। जिनका पेट बड़ा हो जाता है अथवा तोंद निकल जाता है उन्हें इस बांध का अभ्यास करना चाहिए। इस बन्ध के लगातार अभ्यास से अभ्यासियों की पेट नहीं निकलती।
3. जालन्धर बन्ध – गर्दन सीधी रखते हुए ठोड़ी को नीचे लाना और कण्ठकूप में दृढ़तापूर्वक लगा कर रखना। ऐसा महसूस हो जैसे कंठ में ताला लग गया हो। कोशिश करें कि गर्दन सीधी हो और सीना बाहर को तना रहे इसे जालन्धर बन्ध कहते है।
इस बंधन के द्वारा कण्ठ या गले का स्थान आसपास की नाड़ी जाल समूह के समान बंध जाता है। इसलिए इसे जालन्धर बन्ध कहते है।
लाभ – कण्ठ के इस बांध से कंठ संबंधित व्याधियां दूर होती हैं। आवाज सुरीला, मधुर व आकर्षक बनता है। कर्कश स्वर वाले लोगों को इस बन्ध का अभ्यास करना चाहिए। जो सिंगर है उन्हें इस बन्ध से अधिक लाभ मिलेगा। इस बंधन से इड़ा तथा पिंगला नाड़ी जिसे चन्द्र व सूर्य स्वर नाड़ी भी कहते हैं के बन्द हो जाने से प्राण सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर जाता है।
4. महाबन्ध – उपर्लिखित सभी बांधों को जब एक साथ लगाया जाता है तो उसे महाबंध कहते हैं। महाबन्ध को लगाने के लिए इसका अभ्यास आवश्यक है। योग साधना में दो तरह से महाबन्ध के बारे में बताया गया है।
प्रथम प्रकार – पद्मासन, सरलासन या सिद्धासन पर बैठ जाएं। सबसे पहले मूलबन्ध लगाते हुए अपानवायु को ऊपर की ओर खींचें तथा नाभिस्थ समानवायु के साथ मिला दें। और हृदयस्थ प्राणवायु को अधोमुख कर उसे भी नाभि स्थल पर ले आये। इस प्रकार तीनों स्थल की वायु एक जगह पर आ जायेगी। जिसमें अपानवायु जो गुदा के पास
स्थित होता है, समानवायु नाभी के समीप और प्राणवायु जो हृदय के पास स्थित होता है उन सभी को नाभी पर केन्द्रित सांस को भीतर रोकना ही महाबन्ध कहलाता है।
दूसरा प्रकार – बाएं पैर को मोड़ते हुए एड़ी को गुदा द्वार पर लगाते हुए बैठे। दाएं पैर को बाएं जंघा पर रखें। अब जालन्धर बन्ध लगाएं। फिर मूलबन्ध लगाएं। अब मन को मध्यनाड़ी यानी सुषुम्ना नाड़ी में लगाकर यथाशक्ति सांस को रोके और छोड़े। इस क्रिया के बाद अनुलोम-विलोम प्रणायाम करें।
लाभ – महाबन्ध के द्वारा तीनों बांधों का लाभ एक साथ मिल जाता है। इस बांध से वीर्य की शुद्धि होती है। इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना नाड़ियों का संगम होता है। जिससे बल-वृद्धि होती है। उपर्युक्त तीनों बन्धों का संगम इस बन्ध में होने के कारण उन तीनों बन्धों के लाभ इसमें मिलते हैं।
योग और बंध में सांसों को रोकने और छोड़ने की क्रियाओं के नाम हम संक्षेप में जानेंगे।
सांस का भीतर खींचना – पूरक
बाहर छोड़ना – रेचक
सांस को भीतर रोकना – आन्तरिक कुम्भक
सांस को बाहर रोकना – बाह्य कुम्भक
बाएं नथुने से स्वाभाविक श्वसन क्रिया का होना – चन्द्र स्वर या इड़ा नाड़ी का चलना कहलाता है।
दाएं नथुने से स्वाभाविक श्वसन क्रिया का चलना – सूर्य स्वर या पिंगला नाड़ी का चलना कहलाता है।
जब दोनों नथुनों से श्वांस समान गति से चलता है, तब उसे मध्यनाड़ी या सुषुम्ना नाड़ी का चलना कहते हैं। योग के विषयों को जानने से पहले इनके बारे में समझना अति आवश्यक है।
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